उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (अड़तीसवीं कड़ी)

कृष्ण की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र भीतर तक कांप गये। तब तक विदुर के अलावा किसी ने उनको यह बताने का साहस नहीं किया था कि अभी तक उन्होंने पांडवों के साथ अन्याय और केवल अन्याय किया है। विदुर की बात को भी वे एक विद्वान् का थोथा पुस्तकीय ज्ञान मानकर उड़ा देते थे। विदुर की एक भी सही सलाह को उन्होंने नहीं माना और अपने अंधे पुत्र-मोह में दुर्योधन के हर गलत कार्य का समर्थन करते गये। अब कृष्ण के रूप में उन्हें दर्पण दिखाने वाला मिल गया था।

बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उन्हेें कहना पड़ा- ‘आपके सन्देह का क्या आधार है, केशव!’

‘महाराज, आपको ज्ञात होगा कि वारणावत में पांडवों को उनकी माता महारानी कुंती सहित जीवित जलाकर मार डालने का षड्यंत्र किया गया था। क्या आपने पता लगाने का प्रयास किया कि यह षड्यंत्र किसने किया था? इस षड्यंत्र का पता लगाकर अपराधी को दंड क्यों नहीं दिया गया? क्या इस राजसभा में एक भी न्यायप्रिय व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो इस षड्यंत्र को प्रकट करने की मांग करता?’

यह बात कहते हुए कृष्ण ने समस्त राजसभा की ओर खोजपूर्ण दृष्टि डाली। किसी के मुंह से कोई बोल नहीं फूटा। सबसे सिर लज्जा के कारण झुके हुए थे। इस लज्जापूर्ण स्थिति से राजसभा को निकालने के लिए विदुर खड़े हुए और बोले- ‘वासुदेव, इस घटना की जांच की गयी थी और यह पाया गया था कि वारणावत के भवन में आग दुर्घटनावश लगी थी।’

‘वाह ! और वह भवन भी ज्वलनशील पदार्थों के दुर्घटना से ही बन गया होगा? अगर दुर्घटना होती, तो पांडवों को बच निकलने का अवसर कैसे मिलता? महामंत्री, यह एक गहरा षड्यंत्र था, जिसका पता किसी तरह पांडवों को लग गया और उन्होंने अपनी रक्षा का उपाय कर लिया। अन्यथा आज वे जीवित न होते।’

विदुर ने आगे कुछ नहीं कहा, लेकिन धृतराष्ट्र ने इस चर्चा को टालने के लिए कहा- ‘वासुदेव, अब इस चर्चा को यहीं रहने दीजिए। अब यह अध्याय बन्द हो चुका है।’

‘सत्य कहा, महाराज! यह अध्याय अब बन्द हो चुका है। लेकिन यह प्रश्न अभी भी बचा हुआ है कि जिनके ऊपर पीड़ितों के साथ न्याय करने और अपराधियों को दंड देने का दायित्व है, वे अपने इस दायित्व में क्यों असफल रहे?’ यह कहकर उन्होंने पितामह भीष्म पर दृष्टि डाली और सीधे उनको सम्बोधित करते हुए कहने लगे- ‘मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, पितामह! आप यहां सबसे वरिष्ठ हैं, आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा हैं, अजेय हैं। आपके सामने ही आपकी पुत्रवधू और पौत्रों को जीवित जलाकर मार डालने का षड्यंत्र किया गया, परन्तु आप अपराधियों का पता लगाकर उनको दंड नहीं दे सके। क्यों?’

भीष्म इस अप्रिय चर्चा से यथा सम्भव बचना चाहते थे, इसीलिए अभी तक चुप थे। लेकिन जब कृष्ण ने सीधे उनको सम्बोधित किया, तो उनको बोलना पड़ा- ‘मुझसे यह चूक हुई, वासुदेव, क्योंकि मैं अपनी प्रतिज्ञा से बंधा हुआ हूं। मैंने सदा हस्तिनापुर राज्य की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की है।’

‘सत्य है, पितामह! आपने हस्तिनापुर राज्य की रक्षा की प्रतिज्ञा की है, वह सर्वथा उचित है। लेकिन क्या आपने उनके गलत कार्यों का समर्थन करने की भी प्रतिज्ञा कर रखी है? क्यों नहीं आप अन्याय करने वालों को दंड देते? क्या आप इतने असमर्थ और निर्बल हो चुके हैं?’

भीष्म को कोई उत्तर नहीं सूझा। निराशा में सिर हिलाने के बाद वे क्षमायाचना के स्वर में हाथ जोड़कर बोले- ‘इस बात को अब छोड़िये, केशव!’

कृष्ण ने अब भीष्म को और अधिक लज्जित करना उचित नहीं समझा। इसलिए वे सीधे महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखने लगे कि अब वे कुछ कहेंगे। पर धृतराष्ट्र चुपचाप अपने अंधे नेत्रों को इधर उधर घुमाते हुए मौन बैठे रहे।

‘मैं इसका उल्लेख नहीं करना चाहता था, पितामह! लेकिन इस राजसभा के अन्याय की ओर ध्यान दिलाने के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा।’ कृष्ण का स्वर फिर गूंजा। ‘अन्याय का यह एकमात्र अवसर नहीं था, पितामह! इसके बाद भी पांडवों के साथ इसी राजसभा में अन्याय किया गया है।’ कृष्ण ने स्पष्ट स्वर में कहा, तो राजसभा एक बार फिर चौंक पड़ी। किसी को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ, क्योंकि वे सभी यह अनुभव कर रहे थे कि कृष्ण के कथन में बल है। वे भयभीत थे कि अब कृष्ण और क्या रहस्योद्घाटन करेंगे।

जब कोई अन्य कुछ नहीं बोला, तो धृतराष्ट्र को ही बोलना पड़ा- ‘यह क्या कह रहे हो, वासुदेव? हमने और कब किसी के साथ अन्याय किया है?’

‘आप भूल रहे हैं, महाराज, कि इसी राजसभा में पांचाली को निर्वस्त्र करने की चेष्टा की गयी थी।’

कृष्ण का यह वाक्य इस तरह सुनाई दिया जैसे किसी ने राजसभा में विस्फोटक वस्तु का गोला फेंककर विस्फोट कर दिया हो। जिस अप्रिय चर्चा से सभी बचना चाहते थे, कृष्ण ने उसी का उल्लेख करके सबको बहुत लज्जाजनक स्थिति में डाल दिया था। अब उस स्थिति से निकलना उनके लिए असम्भव था।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (अड़तीसवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    वजय भाई , कृष्ण ने साफ़ साफ़ बातें कह दी , दरबार के सभी लोग तो समझते ही थे लेकिन जो कुछ रह गिया था वोह था षड्यंतर का राज जो अभी बहुतों को पता नहीं था . विचारे ध्रित्राश्टर तो यों ही अंधे थे , अगर देख भी सकते तो दुर्योधन के सामने तो उन की एक भी नहीं चल सकती थी . कृष्ण का आना बेमाने नहीं था . दुर्योधन और पार्टी को उन का दोष सीधे उन के मुंह पर मार दिया . अब तो कैर्वों की बेईमानी सारे देश को पता चल जाएगी और सारे हस्तिनापुर और देश की सहानभूति पांडवों के साथ ही तैय थी . बहुत अच्छा लिख रहे हैं , धन्यवाद .

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, भाई साहब. कृष्ण ने भरी राज सभा में जो कहा, वह कहने के लिए भी बहुत हिम्मत चाहिए. अभी देखते जाइये कि वे किससे क्या-क्या कहते हैं. जय श्री कृष्ण !

Comments are closed.