सूरज
धीरे-धीरे
अस्त हो गया सूरज
पच्छिम में
समय ने उतार दी
दिन की पहिरन
स्याह परिधान में
निखर आया एक नया रूप
घरौंदों को वापस होते
पक्षियों की चहचहाहट
गूँजती है हर तरफ
लेकिन इस गहराते अंधकार के बीच
दिन के लेखे में जोड़ता-घटाता
गुमसुम-सा मैं
असफलताओं के घेरे में
हताश-निराश
तभी अचानक
दैदीप्यमान हो उठा
दिल के कोने में
आशाओं का सूर्य
रगों में पैठते अँधकार को छाँटने
– बृजेश नीरज
अच्छी कविता बृजेश भाई .
वाह वाह ! बहुत सुन्दर कविता. ऐसी आशावादिता ही समाधान है.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति