तन्हाई
तन्हाई
आज भी देखती हूँ
जब मैँ तुम्हारा
व्हाइट शर्ट
सजीव हो उठते हो तुम
ठीक उस सफेद
झक्क कैनवास की तरह
जिसमेँ उकेरना चाहती हूँ
कई आकृतियाँ
कई रंग . . .
क्या उकेरुँ उसमेँ
अवसाद के काले रंग
या आड़ी तिरछी रेखाएँ
अकेलेपन के
जब साथ थे तुम
तब भी तन्हा थी मैँ
आज जब हो
मुझसे मीलोँ दूर
तब भी अकेली हुँ मैँ . . .
एकाकी होना
अपने आप मेँ अद्भुत है
भीड़ के हिस्सोँ से
अलग पहचान बनाना
भी तो तन्हाई है
इसका मतलब
ये तो नहीँ
अकेली हुँ मैँ
साथ हो तुम मेरे
जमाना भी साथ है मेरे
फिर भी हूँ मैँ अकेली
तुम्हारे विचारोँ से अलग
भीड़ के उस हिस्से से अलग
अलग है मेरी दुनियाँ
जहाँ शब्द गढ़ते हैँ मुझे
विचारोँ की अग्नि जलती है
साहित्य रुपी उस चूल्हे पर मैँ
संवेदनाओँ के भोजन पकाती हुँ मैँ
जिसे खाना तुम्हारी विवशता है
और मेरी भूख बढ़ती जाती है!!!
सीमा संगसार
अच्छी कविता, सीमा जी.