उपन्यास : शान्तिदूत (बयालीसवीं कड़ी)
दुर्योधन का दो टूक उत्तर सुनकर कृष्ण बहुत निराश हुए। उनका धैर्य भी समाप्त हो गया। दुर्योधन को समझाने के उनके सारे प्रयत्न व्यर्थ गये। वे समझ गये कि इसके सिर पर विनाश की छाया गहरी हो गयी है, जिससे इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति तो यह पहले से ही था, अब हस्तिनापुर का सिंहासन सामने पाकर इसकी दुष्टता और बढ़ गयी है। अब मृत्यु के अतिरिक्त इसका कोई उपाय नहीं हो सकता। इसलिए कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में दुर्योधन को धिक्कारना प्रारम्भ किया।
‘दुर्योधन, तुम्हारा अंतकाल निकट आ रहा है। उसके प्रभाव से और पांडवों के प्रति ईर्ष्या और द्वेष के कारण तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। अपने हित की बात भी तुम्हें अच्छी नहीं लगती। अब तुम्हारा विनाश निश्चित है। मैंने केवल पांच गांवों की न्यूनतम मांग रखी थी, पर वह भी तुम्हें स्वीकार नहीं हुई। इससे यही सिद्ध होता है कि तुम्हारा न्याय और सज्जनता में कोई विश्वास नहीं है। तुम्हें दुष्टता और अन्याय ही अच्छे लगते हैं।
‘तुम प्रारम्भ से ही पांडवों के प्रति द्वेष मानते रहे हो, जबकि वे तुम्हें अपना सगा भाई मानकर सम्मान देते हैं। पर तुम किसी सम्मान के योग्य नहीं हो। वास्तव में तुम एक दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति हो, जिसके हाथ में शक्ति आ गयी है।
‘तुमने बचपन में ही भीम को विष देकर, पानी में डुबोकर और नागों से कटवाकर मारने की कोशिश की थी, जो दैवयोग से सफल नहीं हुई। तुमने वारणावत में पांडवों को उनकी माता सहित जीवित जलाकर मार डालने का प्रयास किया, जो युधिष्ठिर की बुद्धिमत्ता के कारण असफल हो गया। तुम्हें इस अपराध के लिए मृत्युदंड मिलना चाहिए था, परन्तु तुम्हारे निर्बल पितामह और पिता ने पुत्र मोह में तुम्हें दंड नहीं दिया। लेकिन अब तुम इस दंड से बच नहीं सकते। भीम की गदा तुम्हें उचित दंड देगी।
‘तुमने अपने हठ के कारण अपने जन्मांध पिता को हस्तिनापुर का विभाजन करने के लिए बाध्य कर दिया। इसमें तुमने पांडवों को घोर जंगल वाला क्षेत्र देकर एक प्रकार से देश निकाला दे दिया और मृत्यु के मुंह में झोंक दिया। परन्तु अर्जुन के पराक्रम से वे इससे भी सुरक्षित निकल आये।
‘पांडवों ने अपने बाहुबल से पूरे देश को जीता और राजसूय यज्ञ किया। उनका वैभव तुमसे देखा नहीं गया और तुमने उसको छीनने के लिए द्यूत क्रीड़ा का षड्यंत्र रचा। तुमने अपने पिता को बाध्य किया कि महाराज युधिष्ठिर को द्यूत खेलने के लिए आदेश देकर बुलाया जाये। उस खेल में भी तुमने अन्यायपूर्वक शकुनि को अपनी ओर से खिला दिया, जिसने छल करके युधिष्ठिर को हरा दिया और उनका सर्वस्व छीन लिया।
‘तुम्हें इतने से ही सन्तोष नहीं हुआ, बल्कि उनको उकसाकर द्रोपदी को भी दांव पर लगवा दिया और दांव हार जाने पर उसको भरी सभा में निर्वस्त्र करने का आदेश दिया। इस अपराध के लिए तुम्हें किसी ने दंडित नहीं किया, लेकिन भीम ने तुम्हें दंडित करने की प्रतिज्ञा कर रखी है, जो अब पूर्ण की जायेगी।
‘दुर्योधन, तुम्हारी दुष्टताओं को कहां तक गिनाया जाये, वे अनन्त हैं। लेकिन अब तुम्हारे पापों का घड़ा भर चुका है और फूटने ही वाला है। पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य ही नहीं यदि सारे देवी-देवता भी तुम्हारी सहायता करें, तो भी तुम पूर्ण विनाश और मृत्यु से बच नहीं सकते।
‘तुम अपने जिन बली मित्रों के बल पर युद्ध करने की डींग हांकते हो, वे अर्जुन के वाणों के सामने तिनके की तरह उड़ जायेंगे। भीम की गदा से तुम भी अपने सभी दुष्ट प्रकृति के भाइयों के साथ मृत्यु को प्राप्त होगे, यह निश्चित है।’
जब कृष्ण इन शब्दों से भरी राजसभा में दुर्योधन को फटकार रहे थे और उसकी करतूतें गिना रहे थे, तो दुर्योधन का क्रोध लगातार बढ़ता जा रहा था। उसको आश्चर्य हो रहा था कि पितामह और पिता ने कृष्ण को रोका क्यों नहीं? इसलिए अपना रोष प्रकट करने के लिए वह खड़ा हो गया और बोला- ‘कृष्ण, तुम प्रारम्भ से ही पांडवों के प्रति पक्षपात करते रहे हो और हमारा विरोध करते रहे हो। तुमने ही पांडवों को युद्ध के लिए उकसाया है और अब यहां शान्ति का प्रस्ताव लेकर आने का पाखंड किया है।
‘तुमने अपनी बातों से पितामह और पिताश्री को भी अपने वश में कर रखा है। इसीलिए वे तुम्हारी हां में हां मिला रहे हैं। लेकिन मैं कोई प्रस्ताव नहीं मानूंगा। अब मैं तुमसे कोई बात नहीं करना चाहता। अब युद्धभूमि में ही हमारी भेंट होगी। जाकर उन कायर पांडवों से कह दो कि अपनी पूरी शक्ति के साथ युद्धभूमि में आयें और अपने अपराधों का दंड पायें।’
यह कहकर दुर्योधन महाराज धृतराष्ट्र अथवा किसी अन्य की अनुमति लिये बिना किसी अशिष्ट व्यक्ति की तरह पैर पटकता हुआ राजसभा से बाहर निकल गया। उसके साथ ही उसका भाई दुःशासन, मामा शकुनि और अंगराज कर्ण भी महाराज की अनुमति लिये बिना राजसभा से बाहर चले गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई ,कृष्ण ने सब कोशिश कर के देख ली . अब उस को कोई छक नहीं रहा गिया था कि दुर्योधन की बुधि भ्रष्ट हो चुक्की थी , इस लिए उन्होंने खरी खरी बातें कह डालीं . it looks it was a final nail in the coffin.
सही कहा भाई साहब आपने. जब कृष्ण की सारी बातें दुर्योधन ने नकार दीं, केवल ५ गाँव देने को भी राजी नहीं हुआ, तो फिर कृष्णा ने भी उसको खरी-खरी सुना दी, वह भी भरी सभा में सबके सामने.
aaj bhi kitane hi dritrastra apane duryodhano ko pale huye hai
सही कहा आपने, हुकम जी. उत्तर प्रदेश में है एक !