अंतर्चक्षुओँ की भोर
हुआ यूँ कि संध्या ढली,
पंछियोँ की टोली लौट चली ,
अंबर भी काला पड़ने लगा,
पत्ता पत्ता अंधकार के बाणोँ से लड़ने लगा।
पहाड़ अंबर की कालिमा मेँ विलीन हो गये,
और दिनभर मुस्कराते फूले मुरझा भावविहीन हो गये,
शाम आगे बढी अंधेरा और चढा,
निशा के आगमन चंद्रमा आगे बढा,
बादलोँ की ओट से डरते से तारे,
चमकते छिप छिपकर भयभीत सारे,
मंद मंद शीतल पवन सरसराने लगी,
तम के घिरते ही मानो भयातुर घबराने लगी।
तभी उठती सी एक रोशनी निकट मेरे आयी ,
मेरे हृदय समाती मंद मंद मुस्करायी।
तमस का भय निश्चित क्षण भर को दूर हुआ,
तब घमंड अंधकार का अहं चूर चूर हुआ।
ध्यान के शिखर पर पहुँच मैँने बिँदु एक पाया,
अपने अंतरप्रकाश मेँ आनंद सिँधु एक पाया,
अंधेरा घट गया, तम का मेघ छट गया,
मन का अंधेरा अब मिटा निशा का कोई भय नही,
ये अंतर्चक्षुओँ की भोर है मात्र तिमिर का उदय नही।।
___सौरभ कुमार दुबे
बहुत अच्छी कविता .
अच्छी कविता.