कविता

धरती माँ है पुकारती

धरती माँ है पुकारती,

हे! मानव तेरे कृत्यों से भारी हो रही है मेरी छाती

मैंने तुझको काया, मन, अध्यात्म का दिया उपहार

मानव- मानव से करे सदभावना का व्यवहार

सत्कर्मो का प्रत्यारोपण कर करे अपनी आत्मा का उद्धार ,

जीवन के लक्ष्य को समझे और करे अपना बेड़ा पार,

पर हिंसा, असत्य , भ्रष्टाचार, दुराचार से तूने उतारी मेरी आरती,

धरती माँ है पुकारती…!

मैने दिया सुंदर प्रकृति और पर्यावरण ,

कल – कल बहती नदियों, पेड़ – पोंधो ,पर्वतो से किया सौन्दर्यीकरण,

जीवन अपना सवारों करके इनका वरण,

पर नदी बना दी गन्दा नाला जंगल – जंगल काट कर उघाड़ दी मेरी छाती,

धरती माँ है पुकारती….!!!!

चारों ओर धुएं  प्रदूषण की बना दी ऐसी भंवर,

उसका मुझ पर हुआ गहन असर,

पर्वत रूपी मेरा हृदय आंसू बन कर रहा है पिघल ,

सूर्य की चमक जो मेरी सुंदरता है संबल ,

ओजोन परत में भी उसकी हो गया छेद

पर तुझको शर्म नहीं है आती,

धरती माँ है पुकारती ….! .

थोडा पढ़ लिख कर मत बन तू ज्ञानी,

मेरा एक अंश मात्र है ,मत बन तू अभिमानी,

मै – मैं हूँ तू समझ और जा संभल ,

मेरा रौद्र रूप धीरे -धीरे हो रहा है प्रबल,

छोटे छोटे झटके देकर में बार बार हूँ चेताती

मैं जननी हूँ

मैं ही अस्तित्व को बनाती और मिटाती ,

धरती माँ है पुकारती ………!!!!

अशोक गुप्ता

साहिबाबाद निवासी, आटे-अनाज के व्यापारी, मंचों पर कवितायेँ भी पढ़ते हैं.

One thought on “धरती माँ है पुकारती

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता, भाई साहब !

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