उपन्यास : शान्तिदूत (पेंतालीसवीं कड़ी)
अतिथि निवास में आकर कृष्ण ने सात्यकि को राजसभा की कार्यवाही संक्षेप में समझाई, यद्यपि उसकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सात्यकि के कानों में कुछ कुछ चर्चा आ रही थी. कृष्ण ने उनसे कहा- ‘सात्यकि, अभी मेरा कार्य समाप्त नहीं हुआ है. अभी मुझे बुआ से चर्चा करनी है. इसलिए आज रात्रि को मैं वहीँ रहूँगा. तुम यहाँ सावधान रहना और यदि कोई संदिग्ध गतिविधि दिखाई दे, तो मुझे सूचित करना.’
सात्यकि ने इस पर कहा- ‘आप निश्चिन्त रहिये, भैया. मैं अपना कर्तव्य जानता हूँ.’
सायंकाल कृष्ण विदुर के निवास पर पहुँच गए. उनको देखकर कुंती प्रसन्न हो गयी. राजसभा में क्या बातें हुई थी, इसकी सूचना उनको महामंत्री विदुर ने दे दी थी. फिर भी वे कृष्ण के मुंह से ही सुनना चाहती थीं कि वहां क्या हुआ.
कृष्ण को देखते ही कुंती बोली- ‘तुम आ गए, श्याम! मुझे बहुत चिंता हो रही थी कि दुर्योधन तुम्हारे साथ कुछ कर न बैठे.’
‘हा…हा…हा…! बुआ, वह करना तो बहुत कुछ चाहता था, पर आपके आशीर्वाद ने मेरी रक्षा की.’
‘उसने तुम्हारा शांति प्रस्ताव नहीं माना, कृष्ण? मुझे पता था कि वह नहीं मानेगा. मैं उसे बचपन से जानती हूँ.’
कृष्ण ने बताया- ‘बुआ, मुझे दुर्योधन से कोई आशा पहले भी नहीं थी. मैं अच्छी तरह जानता था कि वह युद्ध किये बिना नहीं मानेगा. केवल पांच गाँवों की मांग भी उसको स्वीकार नहीं हुई. मुझे पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य से कुछ आशा थी, परन्तु वे दोनों बहुत निर्बल लगे. मुझे तो उन पर दया आ रही है. महाराज से मुझे कोई आशा नहीं थी, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वे पुत्रमोह में मानसिक रूप से भी अंधे हो चुके हैं. शारीरिक रूप से तो वे जन्म से ही अंधे हैं. अब युद्ध होकर रहेगा और उसमें कौरवों का सर्वनाश भी होगा. भीष्म और द्रोण भी इस विनाश से बच नहीं सकेंगे. महाराज को अपने मनःचक्षुओं से अपने ही वंश का विनाश देखना पड़ेगा. लेकिन अब इसका दोष मेरे ऊपर नहीं आएगा. इसलिए मैं यहाँ आने के परिणाम से संतुष्ट हूँ.’
‘सही कह रहे हो, पुत्र. महाराज ही इस विनाश के दोषी माने जायेंगे. तुम यहाँ कब तक हो?’
‘बुआ, मैं कल प्रातः ही प्रस्थान करूँगा. मुझे नहीं लगता कि अब यहाँ मेरा कोई काम शेष है.’
‘ऐसा नहीं है, गोविन्द. मुझे तुमसे बहुत बातें करनी हैं. आज रात्रि यहीं रुक जाओ.’
‘अच्छा, बुआ. मैं आज यहीं सो जाऊंगा. सात्यकि से मैं कह आया हूँ.’
इसके बाद कुंती और विदुर पत्नी ने कृष्ण को भोजन कराया. आज कृष्ण के भोजन के लिए कई प्रकार के फलों और अन्न से बने पदार्थों की व्यवस्था थी. यद्यपि कृष्ण को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था, परन्तु कुंती और विदुर पत्नी ने अपनी संतुष्टि के लिए सारी व्यवस्था कर ली थी. सुस्वादु भोजन करने से कृष्ण संतुष्ट और प्रसन्न हो गए. राजसभा की घटनाओं के कारण उनके मन पर जो तनाव था, वह दूर हो गया और वे सदा की तरह प्रसन्नचित्त हो गए.
भोजन के पश्चात् शयन करने से पहले कुंती और कृष्ण एकांत में वार्तालाप के लिए बैठ गए. हालाँकि उनको विदुर अथवा उनकी पत्नी से अपनी बातें गुप्त रखने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उनकी ओर से गोपनीयता भंग होने की कोई आशंका नहीं थी. फिर भी सावधानी के लिए उन्होंने एकांत ही चुना.
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , कृष्ण का मंतव पूरा हो गिया , लड़ाई का तो उन्हें पता ही था कि दुर्योधन बहुत करोधी और ताकत के नशे में अँधा हो चुक्का था लेकिन द्रोनाचार्यिया विदुर भीशाम्पितामाहा जैसे लोगों को पूरा यकीन हो चुक्का था कि पांडव और कृष्ण की इस में कोई गलती नहीं थी . जब भी इतहास लिखा जाता है तो लड़ाई के कारण तो लिखे ही जाते हैं .
सही कहा आपने, भाईसाहब. भीष्म और द्रोण दोनों जानते थे कि पांडवों का पक्ष सत्य और न्याय का है, जबकि कौरवों का पक्ष अन्याय का है, फिर भी अपने-अपने कारणों से वे दुर्योधन का साथ दे रहे थे. इसीलिए मैं महाभारत के विनाश के लिए ध्रित्रश्त्र से ज्यादा दोषी भीष्म को मानता हूँ.