कविता
चेहरे पर मुखोटे लगाते है
वो
कहलाते है अपने
और सताते भी है वो
दिल के करीब रहके
यही नसीब कहके
दिल के जख्म बढाते है वो
नही जान पाते
कब दूर हो गये
फांसले कब बने
क्यू मजबूर हो गये
वो भ्रम था हमारा जो चूर हो गया
कल तक था जो अजीज
अब क्यू दूर हो गया
काश इंसा को पहचानने के
गुण हम मे होते
तो आज हम यूं झर झर
लङीया न रोते
किस्मत का देखो
होता यही खेल है
अपना कैसे होगा
जब नही कोई मेल है
बस ये बात ‘एकता’
अब समझ आ गई
अपनो की चाहत खाली
बातो मे समा गई
बहुत खूब !
Thank u sir..
स्वागत है. पर आपको अपनी कविता heading में नहीं उसके नीचे body वाले बॉक्स में लगनी चाहिए.
आगे से इस बात का ख्याल रहेगा विजय जी..
अच्छी कविता एकता जी.
धन्यवाद सर
SHUKRIYA..Vijay kumar singhal ji