लघुकथा

अन्तर्मन की आवाज

मुझे बहुत हैरानी हुई पढे लिखे लोगो की मानसिकता देख।वो भीख नही मांग रही थी बेलून खरीदने को कह रही थी और इस सभ्य समाज के सभ्य दम्पत्ति जोङे ने दुत्कार कर भगा दिया उसे।दया भी नही आई उस नन्ही सी बच्ची को खिझते हुए…खुद को पढे लिखे समझदार समझते है…??
कहाँ जाती है समझदारी जब किसी जरूरतमंद को आपके स्नैह , आपके सहयोग की जरूरत होती है।
होगी करीब सात या आठ साल की वो लङकी..रात होने को आ रही थी तो वो सिर्फ इतना ही बोली बाबूजी! पांच रुपये मे दो दे दूंगी।वहां उस सभ्य दम्पत्ति के लिये पांच रुपये मेरे ख्याल से कोई माइने नही रखे होंगे …और चलो ना लेना था तो ना सही उस बेबस लङकी पर खिझने या चिल्लाने का हक किसने दिया उनको ??
मैं बस ये देख कर उससे दो बेलून सही मूल्य मे लेकर चली आई।पर रात भर मैं खुद को कचोटती भी रही कि मैंने भी तो अफसोस के अलावा कुछ नही किया?? क्यूं मे उन दम्पत्ति को उस लङकी से किये व्यवहार पर कुछ बोल नही पाई …शायद इसलिये कि मैने भी तो इस सभ्य समाज का मुखौटा पहना हुआ है।भले ही मैं वैसा व्यवहार न कर पाऊ पर खङे खङे देखते रहना भी कोनसी शिष्टता थी मेरी ??

एकता सारदा

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]

2 thoughts on “अन्तर्मन की आवाज

  • सविता मिश्रा

    सुन्दर कथा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा. जहां पर कह्र्च करना सदुपयोग है, वहां न करके दिखावे पर खर्च करना मूर्खता है. आजकल धनि लोग ऐसी गलती बहुत करते हैं. यह लघुकथा इसी बात को व्यक्त करती है.

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