लघुकथा

” बुढ़ापे की लाठी “

दिसंबर महीने की बर्फीली  सर्दी में, सड़क  के किनारे एक बुज़ुर्ग  औरत, जिसकी उम्र ८० साल के लगभग थी, लकड़ी की छड़ी के सहारे काफी देर से सड़क पार करने की कोशिश कर रही थी |उसने हलके भूरे रंग का कोट पहन रखा था और क्रीम रंग के शॉल  से सर ढक रखा था । अपनी बूढ़ी नजरों से कभी आती-जाती गाड़ियों को देखती और कभी उम्र के बोझ से  कंपकंपाती, कमज़ोर  टांगों को महसूस करते हुए , सड़क पार करने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी ।

प्रीति जो वहां से गुज़र रही थी यह सब देख कर उसकी सहायता के लिए उसके पास पहुंची , उसका हाथ थाम कर उसने उसे सड़क पार करवाई । वह सामने वाले हेल्थ सेंटर जाना चाहती थी प्रीति उसे सहारा देते हुए वहां ले गई और उस बुज़ुर्ग औरत को कुर्सी पर बिठाया। थोड़ा चलने पर , सांस फूलने के कारण उसे खांसी आने लगी। प्रीति जल्दी से पानी ले आई  और उसे पिलाया । पानी पीने के बाद उसे कुछ राहत मिली। उसने प्यार से अपना हाथ प्रीति के सर पर रखा और झुर्रियों से भरे चेहरे पर  मुस्कुराहट ला कर बोली ” शुक्रिया बेटी मदद के लिए बहुत शुक्रिया, भगवान तुझे सुखी रखे तुझे  जीवन की तमाम खुशियां दे ।”

 

प्रीति प्यार से उसका हाथ अपने हाथो में लेकर बोली ” शुक्रिया किस बात का मांजी बुज़ुर्गो की सेवा करना तो हमारा फर्ज़ बनता है, आप से इतने आशीर्वाद मिल गए मुझे और क्या चाहिए । पर मांजी जैसे आप की सेहत ठीक नहीं है, आप को घर से अपने बेटे जा बहू किसी को साथ लाना चाहिए था, इस तरह अकेले घर से निकलना आप के लिए ठीक नहीं ।

 

यह बात सुनते ही उस बुज़ुर्ग औरत के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं और सीने में छुपा हुआ दर्द आखों के रास्ते गंगा बनकर झर-झर बहने लगा। फिर वो इस बहती हुई गंगा को आंचल में समेटते हुए, एक  गहरी सांस लेकर बोली ” क्या बताऊं बेटी, सब तकदीर का खेल है , मैं अकेली रहती हूं , कुछ साल पहले पति का स्वर्गवास  हो गया….  वैसे तो मेरा भरा-पूरा परिवार है। मेरे तीन बेटे हैं , बहुएं हैं, पोते-पोतिया भी हैं पर वो अलग रहते हैं ….मेरी देखभाल के लिए किसी के पास समय ही नहीं है । पति की मृत्यु के बाद मेरे कुछ रिश्तेदारों के कहने पर मेरे तीनों बेटों ने इस मां को एक एक महीने अपने घर में रखा, लेकिन इस बूढ़ी मां के लिए उनके घर और दिल दोनों ही छोटे पड़ गए। मुझे बोझ समझ कर इस बोझ को  एक-दूसरे पर थोपने के लिए उनमें झगढ़े होने लगे |.. इस बुढ़िया की आंखें क्या पता कब बंद हो जाएं, कब सांसों की माला टूट जाए, मैं नहीं चाहती थी, कि मेरी आंखें अपने बच्चों के बीच ऐसी दुश्मनी देख कर बंद होतीं, इस लिए मैं वापिस अपने  पति  के बनाये आशियाने में उनकी यादों के सहारे रहने चली आई । एक  दर्द भरी आह भरते  हुए  धरती की और टकटकी लगा कर देखते हुए बोली … बच्चों का भविष्य बनाने के लिए मैंने और  मेरे  पति  ने सारी  उम्र सख्त मेहनत की.  फैक्टरियों में काम किया … उन्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दी ..आज इस बुढ़ापे में, जब ये शरीर भी मेरा साथ नहीं देता ,मुझे बच्चों के सहारे की ज़रूरत है पर वो मेरे पास नहीं है .. अच्छा, जो भगवान को मंज़ूर होगा, वही तो मिलेगा | अब तो जीवन के इस आखिरी पड़ाव में  पता नहीं और कितनी सांसें बाकी हैं | फिर दोनों हाथ जोड़ कर बोली, “अच्छा, मेरे बच्चे जहां भी रहें, भगवान उन्हें खुश रखे। मां के दिल से अपने बच्चों के लिए सदा दुआएं ही निकलेंगी |  वह फिर  बहते हुए आंसुओ को आँचल से पोंछने  लगी|

 

तबी डॉक्टर को मिलने का समय हुआ ,तो वो अपना कांपता हाथ प्रीति के सर पर रख कर , लाखों दुआएं देती हुई, अपनी छड़ी  के सहारे डॉक्टर के कमरे की ओर चल पड़ी । प्रीति अपनी भीगी आंखों से उसे जाते हुई देखती रही ,और मन ही मन सोचने लगी .. कि औलाद को तो ” बुढ़ापे की लाठी ” कहा जाता है न, ये बात कहां तक सच  है ?”

 

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6 thoughts on “” बुढ़ापे की लाठी “

  • सविता मिश्रा

    बहुत सुन्दर

    • मनजीत कौर

      बहुत शुक्रिया जी

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मार्मिक कहानी. ऐसे बच्चे आजकल बहुत दिखाई पड़ते हैं जो बूढ़े माँ-बाप को बेसहारा छोड़ देते हैं. यह सामाजिक अपराध है.

    • मनजीत कौर

      बहुत शुक्रिया भाई साहब ,आप ने सही कहा दुनिया में बहुत सारे बच्चे अपने रब जैसे माता पिता पर ऐसे अतियाचार करने का पाप करते है और उनका जीवन दुखमयी बना देते है |धन्य है माता पिता फिर भी अपनी अंतिम स्वास तक बच्चो के लिए ही प्रार्थना करते रहते है |

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मंजीत , आप की लिखी कहानी पड़ कर आँखें नम हो गईं . यह सब इस दुनीआं में हो रहा है लेकिन किसी को देखने की फुर्सत ही नहीं है . कितने दुःख की बात है कि जो माँ बाप बच्चों के लिए सभ कुछ कुर्बान कर देते हैं , बुढापे में वहीँ बच्चे रोटी के दो टुकड़े देने को भी बोझ समझने लगते हैं . फिर यह भी नहीं समझते कि कभी उन्होंने भी बूड़े होना है . बचपन में स्कूल में एक कहानी पड़ा करते थे जो उस वक्त हम नहीं समझते थे . …. बूड़ी माँ बिस्तरे पर पडी खांस रही थी और बुखार से काँप रही थी , तभी बेटे को कुछ माँ पे तरस आया और एक मोटा कम्बल उस पर देने लगा , तब उस की पत्नी बोली , यह तो मरने वाली है , यह कंबल रहने दो , वोह जो पुराना गन्दा है उस को ऊपर दे दो . जब उस ने गन्दा कम्बल दिया तो पोते ने आ कर वोह कम्बल उठा दिया और शुरी से आधा काटने लगा . माँ बोली , बेटा यह किया कर रहा है ? तो बेटा बोला , माँ जब तुम भी ऐसे ही मरोगी तो यह आधा कम्बल तेरे ऊपर डालूँगा . तब वोह सोच कर काँप उठी और नया कम्बल दे दिया . ऐसी कहानिआन लोगों को समझाने के लिए ही लिखी गई हैं लेकिन लोग समझते नहीं हैं . अब मैं भी ७२ का होने वाला हूँ और मेरे बच्चे हमारा बहुत करते हैं , सोचता हूँ अगर आप की कहानी में हम भी ऐसे ही हों तो हमारा किया बनेगा .

    • मनजीत कौर

      शुक्रिया भाई साहब , आप ने मेरी कहानी पड कर आँखे नम कर ली और मेरी आँखे आप के बचपन की पड़ी हुई कहानी सुन कर छलक आई| ऐसी कहानीया लिखने का मनोरथ तब सफल होगा , जब माता पिता पर जुलम करने वाले लोग इस बात को समझे , माता पिता को पूरा सन्मान,प्यार दे उनकी सेवा करे | काश ऐसे बेदर्द बच्चे माता पिता का दर्द महसूस कर सके और उन पर ऐसे जुल्म न करे |

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