उपन्यास : शान्तिदूत (छियालीसवीं कड़ी)
एकांत होते ही कुंती के मन में वे प्रश्न उभर आये जिनको वे कृष्ण से पूछना चाहती थीं- ‘गोविन्द, युद्ध तो निश्चित हो गया है, परन्तु मेरे पुत्रों की तैयारी कैसी है? क्या उनके पास युद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त सेना है? वे 13 वर्ष से जंगल में हैं, उनके कितने सहायक राजा हैं? सब तो दुर्योधन से डरकर उसकी ओर चले गये होंगे।’
‘यह बात नहीं है, बुआ। पांडवों की ओर भी बहुत से सम्बंधी और राजा हैं। महाराज द्रुपद और विराट की पूरी सेना हमारे साथ है ही, कई अन्य राजा भी हमारे साथ आ गये हैं। मुझे अपनी सेना दुर्योधन की कूटनीति के कारण कौरवों के पक्ष में भेजनी पड़ी, इसका मुझे खेद है। फिर भी पांडवों के पक्ष में 6-7 अक्षौहिणी सेना हो जायेगी।’
‘लेकिन कौरवों की सेना तो बहुत बड़ी होगी, कृष्ण!’
‘हां, बुआ। उनकी सेना बहुत बड़ी है। लगभग 11-12 अक्षौहिणी सेना उनकी ओर हो जाएगी। लेकिन आप चिन्ता मत कीजिए, अकेला अर्जुन ही उनकी पूरी सेना को नष्ट करने में समर्थ है।’
‘वह तो ठीक है, गोविन्द, लेकिन भैया शल्य कौरवों की तरफ क्यों चले गये? उनको तो अपने सगे भांजों का साथ देना चाहिए था।’
‘यह उनकी गलती से हुआ है, बुआ। दुर्योधन ने उनके रास्ते में विश्राम का प्रबंध कर दिया था। उन्होंने समझा कि युधिष्ठिर ने किया है, इसलिए धोखे में आ गये। दुर्योधन का नमक खा लेने के कारण उनको दुर्योधन का साथ देना पड़ रहा है। लेकिन इसकी बड़ी कीमत दुर्योधन को चुकानी पड़ेगी, क्योंकि मन से वे अभी भी कौरवों के पक्ष में नहीं हैं। अगर वे पांडवों के पक्ष में आ जाते, तो हमारी शक्ति बहुत बढ़ जाती और शायद पांडव उनको अपना प्रधान सेनापति भी बना देते। लेकिन अब किसी अन्य को बनाया जाएगा।’
‘वह तो ठीक है, कृष्ण! लेकिन तुम पितामह और गुरुदेव को कैसे जीतोगे? उनको जीतना तो असम्भव सा है।’
‘हां बुआ। मुझे भी उनकी चिन्ता है। युद्ध में उनको जीतना लगभग असम्भव है। लेकिन मैं जानता हूं कि वे मन से पांडवों की विजय चाहते हैं, इसलिए शायद वे अपनी पूरी शक्ति से युद्ध न करें। यदि किया, तो हम उनको समाप्त करने का कोई और उपाय निकालेंगे। आप कोई चिन्ता मत कीजिए।’
‘लेकिन, कृष्ण, तुमने तो शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा कर रखी है। तुम इस युद्ध में क्या भाग लोगे?’
‘बुआ, मैं बिना शस्त्र उठाये भी बहुत कुछ कर सकता हूँ। वैसे आवश्यकता होने पर मैं अपनी प्रतिज्ञा तोड़ भी सकता हूँ। पांडवों का पक्ष धर्म और न्याय का है। उनको विजय दिलाना मेरा कर्तव्य है। चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े।’
‘गोविन्द, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम युद्ध में सदा अर्जुन के साथ ही रहो?’
‘क्यों नहीं हो सकता, बुआ? मैंने विचार कर लिया है, ऐसा ही होगा। मैं अर्जुन का रथ हांकूंगा, इस तरह उसके पास रहकर समय-समय पर उसको सलाह देता रहूंगा और संकट के समय उसकी रक्षा भी करूंगा। मैं मनोरंजन के लिए युद्ध देखने नहीं आया हूं।’
‘मुझे तुम्हारा ही भरोसा है, कृष्ण! तुम युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के साथ रहोगे, तो मुझे उसकी रक्षा का पूरा विश्वास है। बस एक बात ही मुझे खाये जा रही है।’
‘वह क्या बुआ? कौन-सी बात है, जो आपको चिन्तित कर रही है?’
‘कर्ण!’
‘अंगराज कर्ण? वह सूत-पुत्र? उसकी आपको क्या चिंता है, बुआ?’
‘तुम्हें पता है कि उसने भगवान परशुराम से धनुर्विद्या सीखी है। वह अजेय है। उसे तुम कैसे जीतोगे?’
‘जानता हूं, बुआ, वह अजेय है और दुर्योधन को सबसे अधिक उसी के बल पर विश्वास है। उसे पितामह और गुरुदेव पर उतना विश्वास नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि वे मन से पांडवों के साथ हैं। उसने कर्ण के बल पर ही युद्ध ठाना है। लेकिन आप कोई चिन्ता मत कीजिए, बुआ, हम कर्ण को भी जीत लेंगे।’
‘उसका तो मुझे पूरा विश्वास है, गोविन्द! लेकिन मेरी चिन्ता का कारण दूसरा है।’
‘वह क्या है, बुआ? मुझे बताइए, आपकी चिन्ता का क्या कारण है?’
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , अक्शौहिनी की संखिया आज के ज़माने में कितनी होती होगी ? पंजाब में भी बोला करते थे महांभारत की लड़ाई में इतनी खूनिआ फ़ौज मारी गई थी . इस कहानी से एक बात और भी समझ में आती है कि उस समय छोटे छोटे राज बहुत होते थे . इसी लिए तो अश्वमेध यग्य कराया जाता होगा . अब इस लड़ाई में कृष्ण ने हथिआर ना उठाने की कसम ली थी तो जो युद्ध के दाव पेच होते हैं वोह तो बता ही सकते थे , शाएद यह ही बात दुर्योधन समझ नहीं पाया होगा .
भाई साहब, महाभारत के अनुसार एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते थे। यह संख्या कुछ बढ़ी-चढ़ी भी हो सकती है, क्योंकि कुरुक्षेत्र में १८ अक्षौहिणी सेना के रहने खाने पीने और लड़ने की बात अतिशयोक्ति सी लगती है. जो भी हो उसमें लाखों योद्धा मारे गए थे, यह निश्चित है.
दुर्योधन सेना बड़ी होने को ही जीत का आधार समझता था. वह नहीं समझ पाया कि कृष्ण की कूटनीति बड़ी-बड़ी सेनाओं पर भारी पड़ती है. अगर पांडवों के पक्ष में कृष्ण न होते, तो पांडव बुरी तरह पराजित हो जाते.
विजय भाई , धन्यवाद . असल में यह बात मेरे दिमाग में बहुत वर्षों से थी . उस समय भारत में जंगल बहुत होते थे बल्कि ज़िआदा भूमि जंगलों से भरी थी और हाथिओं और घोड़ों की कमी नहीं रही होगी , इस लिए यह संखिया सही भी हो सकती है . यह भी सही है कि मैदाने जंग में इतनी जगह का होना भी जरुरी है कि जिस में इतनी फैज लड़ सके . हम पंजाब में सुना करते थे कि इतने लोग मारे गए थे कि बारह कोस पर एक दिया जलता था .आगे का इंतज़ार है …
सही कहा, भाई साहब. संख्या पर मतभेद हो सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उस भयंकर युद्ध में समस्त भारत और आस पास के देशों के अधिकांश योद्धा मारे गए थे. वायुमंडल में बहुत प्रदूषण हो गया था.