ग़ज़ल : उल्फ़त
उल्फत का ज़माने में यही दस्तूर देखा
हर किसी को चाहत में मजबूर देखा
आँखें बयां करती हैं उनके इश्क की इंतहां
अश्कों के आजाब में आँखों को भरपूर देखा
दिखता नहीं यहां कोई होश-ओ-हवास में
जिसे भी देखा इश्क की मदहोशी में चूर देखा
दिलजले गमों को दिल में लिये फिरते हैं
जलते चरागों में भी आशिकों को बेनूर देखा
इंतहां है यह मौहब्बत करने वालों की
सितमगरों को भी हमने यहांबेकसूर देखा ।
प्रिया
शुक्रीया विभा दी व विजय कुमार सिंघल जी
पढ़ कर मज़ा आ गया …. उम्दा रचना
बहुत अच्छी ग़ज़ल, प्रिया जी.