गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : उल्फ़त

उल्फत का ज़माने में यही दस्तूर देखा
हर किसी को चाहत में मजबूर देखा

आँखें बयां करती हैं उनके इश्क की इंतहां
अश्कों के आजाब में आँखों को भरपूर देखा

दिखता नहीं यहां कोई होश-ओ-हवास में
जिसे भी देखा इश्क की मदहोशी में चूर देखा

दिलजले गमों को दिल में लिये फिरते हैं
जलते चरागों में भी आशिकों को बेनूर देखा

इंतहां है यह मौहब्बत करने वालों की
सितमगरों को भी हमने यहांबेकसूर देखा ।

प्रिया

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]

3 thoughts on “ग़ज़ल : उल्फ़त

  • प्रिया वच्छानी

    शुक्रीया विभा दी व विजय कुमार सिंघल जी

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    पढ़ कर मज़ा आ गया …. उम्दा रचना

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी ग़ज़ल, प्रिया जी.

Comments are closed.