उपन्यास : शान्तिदूत (अड़तालीसवीं कड़ी)
कुंती की बात सुनकर कृष्ण सोच में पड़ गये। उस संभावित युद्ध में कर्ण और अर्जुन का संग्राम होना एक प्रकार से निश्चित था। अन्य पांडवों के साथ शायद कर्ण संग्राम न करे, क्योंकि वे धुनर्विद्या में उतने प्रवीण नहीं थे, लेकिन अर्जुन और कर्ण का संग्राम अवश्य होगा। इसको केवल तभी रोका जा सकता है, जब कर्ण और अर्जुन दोनों को यह बात बतायी जाये कि वे आपस में सहोदर भ्राता हैं। यह जानकर निश्चित ही अर्जुन अपने धनुष-बाण कर्ण के चरणों में रख देगा और कर्ण भी अपना सारा वैमनस्य भूल कर अर्जुन को हृदय से लगा लेगा।
लेकिन इसके और भी कई परिणाम हो सकते थे- कुछ वांछित, तो कुछ अवांछित भी। परन्तु इन बातों पर बाद में विचार किया जायेगा, पहले यह जान लेना उचित होगा कि बुआ क्या चाहती हैं। यह सोचकर कृष्ण ने पूछा- ‘बुआ, अब आप मुझसे क्या कराना चाहती हैं?’
‘पुत्र, मैं चाहती हूँ कि तुम कर्ण के सामने इस रहस्य को प्रकट करके उसे पांडवों के पक्ष में लाने का अथवा युद्ध से दूर रखने का प्रयास करो।’
‘बुआ, मुझे तो यह सम्भव नहीं लगता कि वह अपने जन्म का रहस्य जानने के बाद भी दुर्योधन का साथ छोड़ देगा। वह अपने वचन का बहुत पक्का है।’
‘यह मुझे पता है, श्याम ! पर तुम प्रयास तो कर सकते हो।’
‘ठीक है, बुआ! मैं उसको यह रहस्य बताकर समझाने का प्रयास करूंगा।’
‘लेकिन एक बात याद रखना, पुत्र, कि यदि कर्ण स्वीकार न करे, तो यह रहस्य किसी अन्य को मत बताना।’
‘अच्छा बुआ, यह बात याद रखूँगा।’
‘ध्यान रखना, पुत्र, कि यह रहस्य किसी भी स्थिति में युधिष्ठिर को पता न चले, अन्यथा वे ऐसा कुछ कर सकते हैं, जो हमें अच्छा नहीं लगेगा।’
‘यह तो सत्य है बुआ, यदि महाराज युधिष्ठिर को यह रहस्य ज्ञात हो गया, तो वे निश्चय ही कर्ण को अपना बड़ा भ्राता समझकर अपना मुकुट उनको सौंप देंगे। इसलिए कर्ण के स्वीकार करने तक उनको कुछ भी बताना उचित नहीं होगा।’
‘हाँ, पुत्र! यही मैं सोच रही हूँ।’
कृष्ण विचार करने लगे कि इस रहस्य को कर्ण के सम्मुख खोलने के दो परिणाम हो सकते हैं- एक, कर्ण इसे स्वीकार करके पांडवों के पक्ष में आ जायें या युद्ध से विरत हो जायें। दो, वे इसे अस्वीकार करके कौरवों के पक्ष में ही बने रहें और अपने सहोदर भाइयों से युद्ध करें। इनमें से दूसरी संभावना सबसे अधिक थी। यदि ऐसा होता है, तो परिस्थिति में कोई अधिक अन्तर नहीं पड़ेगा, क्योंकि यह रहस्य कर्ण तक ही छिपा रह जाएगा और सब पहले की तरह युद्ध की तैयारियां करते रहेंगे।
लेकिन यदि कर्ण पांडवों के पक्ष में आ जाते हैं, तो बहुत उथल-पुथल होगी। सबसे अधिक तो यह कि कर्ण को बहुत अपयश मिलेगा और दूसरा यह कि कर्ण ने अभी तक पांडवों के प्रति जो अपराध किये हैं, उनका दंड उनको नहीं मिल पायेगा। विशेष रूप से द्रोपदी का जो घनघोर अपमान कर्ण ने किया था, उसके कारण कर्ण केवल मृत्युदंड के पात्र हैं, भले ही उनको यह ज्ञात नहीं था कि वह उनके छोटे भाइयों की पत्नी है? क्या माता कुंती अपने अपराधी पुत्र को क्षमादान दे देंगी? क्या द्रोपदी भी इसको स्वीकार करके कर्ण को अपना सम्मान दे पायेगी? इससे भी बढ़कर क्या द्रोपदी कर्ण को अपने छठे पति के रूप में स्वीकार कर पाएगी, जिसको उसने सूतपुत्र कहकर अपने स्वयंवर में अस्वीकार्य घोषित कर दिया था? कर्ण के जन्म का सत्य जानने के बाद दुर्योधन की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या वह बिना युद्ध किये ही इन्द्रप्रस्थ का राज्य पांडवों को सौंप देगा? या वह अपने अन्य योद्धाओं भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि को साथ लेकर युद्ध करेगा?
इस तरह के अनेक प्रश्न कृष्ण के मन में उठने लगे। इनका कोई निश्चित उत्तर उनके पास नहीं था और शायद कुंती के पास भी नहीं था। इसलिए प्रश्नों को अपने मन में ही दबाकर कृष्ण ने अपनी बुआ से केवल यह पूछा- ‘बुआ, मान लीजिए अगर कर्ण इसको स्वीकार कर लेते हैं और पांडवों की ओर आ जाते हैं, तो पांचाली की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या वह उनको क्षमा कर पायेगी?’
यह प्रश्न सुनकर कुंती सन्न रह गयीं। इस बात पर उन्होंने विचार अवश्य किया होगा, लेकिन इसका कोई निश्चित उत्तर उनके पास नहीं था। इसलिए वे केवल यह कह सकीं- ‘कृष्ण, कर्ण ने राजसभा में द्रोपदी का जो अपमान किया था और कराया था, उसके कारण वह वध्य हो गया है। उसको क्षमादान देने का अधिकार मुझे नहीं है। यदि पांचाली चाहे, तो उसे क्षमा कर सकती है, अन्यथा उसे मृत्युदंड स्वीकार करना होगा। लेकिन यह प्रश्न तो बाद में उठेगा। पहले कर्ण के मन की थाह लो कि वह क्या निर्णय करता है।’
कृष्ण ने स्वीकृति में सिर हिलाया। लेकिन वे एक अन्य प्रश्न पूछने से स्वयं को नहीं रोक सके। बोले- ‘बुआ, अगर मैं कर्ण को कौरवों को छोड़कर पांडवों के साथ आने के लिए सहमत कर पाने में असफल रहा, तो क्या होगा?’
कुंती के पास इसका उत्तर तैयार था- ‘तब तुम्हारा कोई दोष नहीं होगा, गोविन्द! तब तुम सब कुछ भूलकर चले जाना और मेरे पुत्रों को युद्ध के लिए तैयार करना। वैसे मैं स्वयं एक बार कर्ण से मिलकर उसे सच्चाई बताऊंगी और पांडवों के पक्ष में आने के लिए कहूँगी।’
‘अस्तु, बुआ, जैसा आपने कहा है मैं वैसा ही करूँगा, यद्यपि मुझे लगता है कि इसमें सफलता की संभावना बहुत कम है।’
कुंती फिर विचारों मग्न हो गयीं. दोनों के बीच कुछ क्षण तक मौन रहा। फिर कृष्ण ने ही मौन तोड़ा- ‘बुआ मैं कल प्रातःकाल ही उपप्लव्य नगर के लिए निकल जाना चाहता हूँ, ताकि सायंकाल तक वहां पहुंच जाऊँ। यदि आपको पांडवों से कुछ कहना हो तो बता दीजिए।’
इस पर कुंती दृढ़ और संयत स्वरों में बोली- ‘कृष्ण, मेरे सभी पुत्रों से कहना कि जिस दिन के लिए क्षत्राणी पुत्रों को जन्म देती है, अब वह दिन आ पहुँचा है और वे सभी पूरे मन से युद्ध करके शत्रुओं का संहार करें। भले ही शत्रु हमारे सगे सम्बंधी ही क्यों न हों, पर वे अन्याय का साथ दे रहे हैं, इसलिए उनका वध करने में उनका हाथ काँपना नहीं चाहिए। यही मेरा संदेश है, यही मेरा आदेश है और यही मेरा आशीर्वाद है।’
‘हूँ।’ कृष्ण ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
‘कन्हैया, मेरी पुत्रवधू द्रोपदी को मेरा आशीर्वाद देना और उससे कहना कि अभी तक उसने अपने जीवन में जो कष्ट झेले हैं उनकी समाप्ति का समय आ गया है। वह पूरे प्राणप्रण से अपने पतियों का सहयोग करती रहे।’
‘हूँ। और कुछ कहना है बुआ?’
‘नहीं। बस इतना ही कह देना।’ यह कहकर वे कुछ रुकीं और बोलीं- ‘कृष्ण, अब बहुत रात्रि बीत गयी है। अब तुम सो जाओ। तुम्हें प्रातःकाल जाना है।’
‘जो आज्ञा, बुआ’, कहकर कृष्ण अपने पलंग पर लेट गये और शीघ्र ही प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
बहुत बढ़िया ….सादर नमस्ते भैया
नमस्ते, बहिन जी. बहुत बहुत आभार !