उपन्यास : शान्तिदूत (उनचासवीं कड़ी)
प्रातः नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर कृष्ण ने कुंती और विदुर पत्नी से विदा ली तथा अपने साथी सात्यकि के पास अतिथि भवन में पहुँच गये। सात्यकि भी तब तक नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो चुका था। वह कृष्ण की प्रतीक्षा ही कर रहा था। कृष्ण को देखते ही सात्यकि ने प्रश्नवाचक नेत्रों से उनकी ओर देखा। लेकिन कृष्ण ने कहा- ‘अब चलने की तैयारी करो। रास्ते में बातें करेंगे।’
शीघ्र ही वे चलने के लिए तैयार हो गये। उनको औपचारिक विदा देने के लिए महाराज धृतराष्ट्र की ओर से भीष्म, विदुर, द्रोण और कर्ण सहित वे सभी लोग आये थे, जो उनके स्वागत में भी थे। आश्चर्यजनक रूप से उनमें दुर्योधन भी था। वे सभी कृष्ण के साथ नगर द्वार तक आये, जहां उनका रथ तैयार खड़ा था। कृष्ण ने भीष्म पितामह, विदुर, द्रोण सहित सभी बड़ों को प्रणाम किया। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, शकुनि सहित अन्य सभी ने कृष्ण का अभिवादन किया।
कृष्ण अपने रथ की ओर बढ़े। तभी उन्होंने कर्ण के कंधे पर बहुत स्नेह से हाथ रखा। यह देखकर कर्ण चौंक पड़ा और प्रश्नवाचक मुद्रा में कृष्ण की ओर देखा। कृष्ण ने अपनी मोहक मुस्कान के साथ कहा- ‘अंगराज, आप मेरे रथ पर आ जाइए। कुछ दूर तक चलिए। गप-शप करते हैं।’ कर्ण ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की। वे सरलता से कृष्ण की ओर चलने लगे।
लेकिन यह देखकर दुर्योधन, शकुनि की भौंहें तन गयीं। वे सोच रहे थे कि पता नहीं यह रहस्यमय यादव अब क्या चाहता है? कहीं यह कर्ण को फोड़ने की कोशिश तो नहीं करेगा? दुर्योधन कर्ण को कृष्ण के साथ जाने से रोकना चाहता था, परन्तु शकुनि ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसको इशारे से मना कर दिया। मन मारकर दुर्योधन रह गया। उसने इतना अवश्य किया कि एक खाली रथ कृष्ण के रथ के साथ भेज दिया, ताकि कर्ण वापस आ सकें।
नगर से बाहर निकलते ही कृष्ण कर्ण के साथ सामान्य रूप से कुशलक्षेम पूछने लगे और पारिवारिक चर्चा करने लगे। कुछ दूर जाकर जब वन का मार्ग प्रारम्भ हुआ और वहां किसी अन्य व्यक्ति के आने की संभावना नहीं थी, तो कृष्ण ने दोनों रथ रुकवा दिये। उन्होंने सात्यकि से कहा- ‘सात्यकि, तुम अपने रथ में ही बैठे रहना। मैं और अंगराज कुछ वार्ता करेंगे। देखना कि कोई हमारी वार्ता को सुनने की कोशिश न करे।’ सात्यकि ने इस पर स्वीकृति में सिर हिलाया।
कृष्ण कर्ण को साथ लेकर वन के वृक्षों के समूह में इतनी दूर चले गये, जहां होने वाली वार्ता को कोई सुन नहीं सकता था। कर्ण अभी तक आश्चर्यचकित थे कि कृष्ण मुझे अपने साथ क्यों लाये हैं और क्या गोपनीय वार्ता करना चाहते हैं। परन्तु वे सहज भाव से कृष्ण के साथ चले गये। कृष्ण की मुस्कान ही इतनी मोहक थी कि कोई उनकी किसी इच्छा को अस्वीकार करने की सोच भी नहीं सकता था। फिर कृष्ण का सान्निध्य तो अत्यंत दुर्लभ था। इसलिए कर्ण प्रसन्न भाव से कृष्ण के साथ हो लिये थे।
एकान्त स्थान में पहुँचकर कृष्ण ने फिर उसी मोहक मुस्कान के साथ कर्ण से कहा- ‘अंगराज, आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि मैं केवल आपको ही अपने साथ क्यों लाया हूँ और क्या वार्ता करना चाहता हूँ।’ कर्ण ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
कृष्ण ने कहा- ‘वीरवर! आज मैं आपके जीवन का एक रहस्य खोलना चाहता हूँ।’
‘कैसा रहस्य?’ कर्ण के विस्मय की सीमा न रही।
‘क्या आप जानते हैं कि आपके माता-पिता कौन हैं?’
कर्ण आश्चर्य से कृष्ण की ओर ताकने लगे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कृष्ण इस बारे में वार्ता करना चाहते हैं। लेकिन कृष्ण के प्रश्न का उत्तर तो देना ही था, इसलिए वे बोले- ‘इसमें रहस्य क्या है, केशव? अधिरथ मेरे पिता हैं और राधा मेरी माता हैं।’ हालांकि कर्ण को यह ज्ञात था कि उनकी माता को वे शिशु रूप में कहीं से प्राप्त हुए थे और उन्होंने अपने ही पुत्र के रूप में कर्ण का लालन-पालन किया था। कभी भी किसी भी रूप में उन्होंने यह संकेत नहीं आने दिया था कि वे उनकी वास्तविक संतान नहीं थे।
‘वे तुम्हारे पालक माता-पिता हैं, अंगराज! मैं आपकी जन्मदायिनी माता और वास्तविक पिता की चर्चा कर रहा हूँ। क्या आप नहीं जानना चाहते कि वे कौन हैं?’
कर्ण इस चर्चा से संकोच कर रहे थे। उनको यह तो अनुमान था कि वे सूतपुत्र नहीं। उनके चेहरे पर जो तेज था और शरीर में जो बल था, वह स्पष्ट संकेत करता था कि वे किसी क्षत्रिय की संतान थे। लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन एक सूत-पुत्र के रूप में बिताया था, इस कारण बहुत मान-अपमान सहन किये थे, इसलिए वे अपना शेष जीवन इसी रूप में बिताना चाहते थे। अगर उनके वास्तविक माता-पिता का पता चल भी जाए, तो अब क्या लाभ? इसलिए उन्होंने कृष्ण से कहा- ‘केशव, अपने वास्तविक माता-पिता के बारे में कौन नहीं जानना चाहता? लेकिन अब उससे क्या लाभ? मैंने सारा जीवन सूत-पुत्र के रूप में बिताया है, मैं वही बने रहना चाहता हूँ।’
‘आपका कहना सत्य है, वीरवर ! लेकिन अपना वास्तविक स्वरूप जानने से आपके जीवन को एक सही दिशा मिल सकती है।’
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , मैं यह तो जानता कि कर्ण पर इस बात का किया परभाव पड़ेगा लेकिन ऐसा सच जान्ने के बाद कोई भी इंसान भीतर से हिल्ल तो जाएगा ही . वोह भी तब जब अपने ही भाईओं से लड़ने का वक्त आ जाए . यह भी तो हो सकता है कि वोह अपनी माँ से ही नफरत करने लगे जिस ने उसे पानी वहा दिया था . माँ की मजबूरी को ही ज़र अंदाज़ कर दे.
आपका सोचना सत्य है भाई साहब. यह जानने के बाद कि कुंती उसकी जन्मदायिनी माता हैं, कर्ण उनसे नफरत करने लगा था. लेकिन वह अपने वचन का पक्का था. इसलिए उसने कुंती को वचन दिया था कि मैं अर्जुन के अलावा किसी को नहीं मारूंगा. उसने अपने इस वचन का पालन किया था.
लेकिन इस उपन्यास का कथानक इससे पहले ही समाप्त हो जायेगा. उस कहानी का उल्लेख नहीं करूँगा.
Sir,aapne agle kathanak ko aaj hi bata diya?
आपकी बात समझ में नहीं आई. साथ में अडवाणी जी का चित्र क्यों? उनका इस उपन्यास से कोई सम्बन्ध नहीं है.