उपन्यास : शान्तिदूत (पचासवीं कड़ी)
‘भगवन्, क्या आप जानते हैं कि मेरी माता कौन हैं?’ कर्ण ने कृष्ण की आंखों में देखकर यह सीधा प्रश्न पूछा।
‘हाँ!’ कृष्ण ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
‘क्या वे जीवित हैं?’ कर्ण की जिज्ञासा बढ़ गयी।
‘हाँ!’ कृष्ण ने फिर स्वीकृति में अपना सिर हिलाया।
‘केशव! आप इतने विश्वास से कैसे कह सकते हैं कि वे ही मेरी माता हैं?’
‘क्योंकि उन्होंने स्वयं अपने मुख से मुझे यह रहस्य बताया है!’
‘क्या उन्होंने आपसे यह भी कहा है कि मुझे यह रहस्य बता दें?’
‘हाँ, उनकी अनुमति से ही मैं तुम्हें यह रहस्य बताना चाहता हूँ।’
‘तो बताइये, भगवन्, कौन हैं मेरी जन्मदायिनी माँ!’ कर्ण की जिज्ञासा चरम पर पहुँच गयी। उसे रोमांच हो आया।
‘मेरी बुआ कुंती!’
‘क्या?’ कर्ण के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। जिस कुंती को उसने कुरुवंश की महारानी और पांडवों की राजमाता के रूप में ही जाना था, वह उसकी जन्मदायिनी माँ है, कर्ण ने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। एक क्षण में ही कर्ण का हृदय एक साथ प्रसन्नता-दुःख, उल्लास-अवसाद, आशा-निराशा के मिश्रित भावों से भर गया। उसे रोमांच हो आया। उसके मस्तिष्क में वे सारे दृश्य साकार हो गये, जब-जब उसने कुंती के दर्शन किये थे।
जिन पांडवों के विरुद्ध वह अपनी पूर्ण शक्ति से युद्ध करने और संभव हो तो उनको यमलोक भेजने की तैयारी कर रहा था, वे उसे सहोदर भ्राता हैं, यह कल्पना ही उसके हृदय को गर्व से भर दे रही थी। उसे इसका क्षोभ हुआ कि वह अपने सगे भाइयों के विरुद्ध शस्त्र उठाने जा रहा था। जिस अर्जुन को वह अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी मानता आया था, वह उसका सगा छोटा भाई है, जो उसके स्नेह का पात्र है, द्वेष का नहीं।
उसे हार्दिक दुःख हुआ कि जिस सती नारी का अपमान उसने भरी सभा में ‘वेश्या’ कहकर किया था और दुर्योधन को उसके वस्त्र उतार लेने की सलाह दी थी, वह उसके अपनी अनुज वधू थी। इस पाप का प्रायश्चित मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता।
उसके सामने स्पष्ट हो गया कि दीक्षांत प्रदर्शन के समारोह में जब उसने अर्जुन को द्वंद्व युद्ध की चुनौती दी थी, तो महारानी कुंती क्यों अस्वस्थ हो गयी थीं। कोई भी मां अपने पुत्रों को आपस में लड़कर मरते हुए नहीं देख सकती।
उसको स्मरण हो आया कि जब-जब उसने कुंती को महारानी कहकर प्रणाम किया था, तब-तब कुंती ने कैसी विचित्र दृष्टि से उसे देखा था। वह उस दृष्टि को कभी नहीं भूल सकता। एक मां अपने पुत्र को प्रणाम करते देखकर उसके सिर पर हाथ फेरे बिना और उसे कंधे से लगाये बिना नहीं रह सकती। कुंती को ऐसे अवसरों पर स्वयं को नियंत्रित करते हुए कितना मानसिक कष्ट हुआ होगा, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है।
कर्ण की जिज्ञासा अभी समाप्त नहीं हुई थी। वह जानना चाहता था कि उसकी जन्मदायिनी मां ने उसे क्यों त्याग दिया। उसने कृष्ण से पूछा- ‘केशव, माँ ने मुझको क्यों त्याग दिया था? मैंने क्या अपराध किया था?’
‘आप का कोई अपराध नहीं था, वीरवर!’ कृष्ण ने सांत्वना के स्वर में कहा। ‘ऋषि दुर्वासा ने उनको एक मंत्र दिया था जिससे वे किसी भी देवता का आह्वान कर सकती थीं। उन्होंने अपनी उत्सुकता में मंत्र की शक्ति परखने के लिए सूर्यदेव को बुला लिया। उनके तेज से आपका जन्म हुआ था, अंगराज! कौमार्य अवस्था में ही उत्पन्न होने के कारण लोकनिंदा के भय से उन्होंने आपको एक पेटिका में सुरक्षित रखकर नदी में बहा दिया था, जो कई दिन बाद अधिरथ को प्राप्त हो गयी। इस प्रकार आप अधिरथ के पुत्र बने।’
‘उनको कैसे पता चला कि मैं अधिरथ के घर पर पल रहा हूँ, वासुदेव?’
‘उन्होंने एक सैनिक को उस पेटिका पर दृष्टि रखने के लिए नियुक्त किया था, उसी ने यह सूचना बुआ को दी थी।’
कर्ण की जिज्ञासा शांत हो गयी। जिन भगवान सूर्यदेव को वह अनायास ही अपना सबसे बड़ा आराध्य मानता आया था, वे उसके पिता थे, यह जानकर उसे बहुत गर्व की अनुभूति हुई। लेकिन उसके मन में एक नया झंझावात उत्पन्न हो गया। कर्ण सोचने लगे कि जिस माता ने मुझे जन्म दिया था, क्या उसके लिए यह उचित था कि जन्म लेते ही उसने मुझे नदी की लहरों को सौंप दिया? क्या लोकनिंदा का भय किसी अबोध-विवश शिशु के जीवन से भी अधिक शक्तिशाली है? निरपराध होते हुए भी जिस माता ने मुझे जन्म लेते ही त्याग दिया, क्या अब उसका मेरे ऊपर कोई अधिकार है? क्या वह मेरे सम्मान की पात्र है? कृष्ण ने यह रहस्य बताकर मेरे ऊपर उपकार किया है या अपकार? भविष्य में मेरे लिए किस रूप में जीवन जीना उचित होगा?
ऐसे अनेक प्रश्न कर्ण के मस्तिष्क में गूंजने लगे। मानसिक आघात और पश्चाताप के कारण उसके लिए खड़े रहना भी असम्भव हो गया। वह एक वृक्ष के तने का सहारा लेकर शोक की मुद्रा में सिर झुकाकर बैठ गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’