कविता : जितनी सरल उतनी जटिल
जितनी सरल !
उतनी जटिल!
कविता तुम
एक तिल्लसमी हो !!
कभी स्वत: ही
भावों के अनुरूप ढल कर
हंसती खिलखिलाती
तुम्हें पाकर तब
मन हो जाता अभिभुत
तो कभी
जिद्दी बच्चे की तरह
हठ पर अड़ जाती
लाख मनाउं
नहीं मानती
तब
अथाह धीरज के साथ
अनुभवों,भावनाओं और
अनुठे शब्दों के
बिछाती हूं जाल
पर तुम किसी तितली सदृश्य
हाथ बढाते ही
हो जाती अदृश्य
अजब तुम्हारी टेढी चाल
ढलक पड़ते फिर
आंखों से आंसू
जाने कैसा है
ये जादु
क्या स्त्री क्या पुरूष
सब के सब
तुम्हें पाने के अभिलाषी
अनोखा है तुम्हारा
सम्मोहन
आकर्षण
खुद को खोकर
जो तुम्हें जीता
तुम उसी के हाथ आती !!
कविता पर बहुत अच्छी कविता !
bahut khub
shukriya