कवितायेँ
समन्दर की मौजो में कभी खुश्क होता रहा
सेहरा को भी कभी अपने अश्को से भिगोता रहा ..
उसकी आँखों में नहीं है पहले से सैलाब अभी
दर्द हुआ तो छिपकर दिल से कहीं रोता रहा ..
बेहिसाब जागा नींद ए सुकून की खातिर कभी
आँखें जो बन्द की कभी तो बेखबर सोता रहा ..
कागज की कश्ती को निकाला तूफानो से कभी
साहिल पर आकर कभी बेवक्त डुबोता रहा ..
थामा भी उसने जो गिरने को हुआ कभी
कदम तले की सख्त जमी को कभी खोदता रहा ..
मरहम से भी सहलाया गहरे जख्मो को कभी
कभी सुकून की जींदगी में नए जख्म देता रहा ..
वक्त कहते हैं इसे जो ना कभी रूका ‘मणि’
कल था कभी आज है वो कल कभी होता रहा….
मनीष मिश्रा ‘मणि’
अच्छी कविता.
बहुत बढिया .