*******जनक की प्रतिज्ञा*******
फिर ना बंजर भूमि पर अब मैं हल चलाऊंगा
धरती माँ की कोख से कोई सीता ना उपजाऊंगा
महादेव का महाधनुष ना अब प्रत्यंचा पायेगा
मेरी विरदावली आज से कहीं कोई ना गायेगा
मैं अभागा किस हेतु से यज्ञ कोई करवाऊं अब
जिस सीता को प्रेम से पाला क्यों उसकी बलि चढाऊं अब
राम रहा ना कोई धरा पर रावण का साम्राज्य है
भारत भूमि रही अखंड ना पग पग सभी विभाज्य है
महादेव तुम देना मुझको वो धनुष उठा जो पाऊं मैं
लाज बचाने अपनी पुत्री की जिससे बाण चलाऊं मैं
बीच सभा में मेरी पुत्री पुनः ना ऐसी लज्जित हो
नहीं चाहिए ऐसा शासन जो सीता विहीन सुसज्जित हो
शपथ हजारो बार कि जिससे दिलवाई जाये पावनता की
नहीं चाहिए कोई सुख समृद्धि ऐसी कलुषित जनता की
प्राणों से प्यारी मेरी पुत्री को लोकापवाद ने लीला है
सुदृढ़ दिखता ये समाज भी अन्दर ही अन्दर ढीला है
राम तुम्हारा दोष नहीं है, ये समाज ही ऐसा है
रावण तुमने एक है मारा पर ये रावण के जैसा है
कोई पतिता रोज यहाँ पर लाज बचाती कंसों से
मन के काले कौओं से, बातों के मीठे हंसों से
इसीलिए ये मेरी प्रतिज्ञा अब ना धरती पर सीता लाऊंगा
कब तक तुम संघर्ष करोगे कब तक मैं नीर बहाऊंगा
फिर ना बंजर भूमि पर अब मैं हल चलाऊंगा
धरती माँ की कोख से कोई सीता ना उपजाऊंगा
_________________________________________सौरभ कुमार दुबे
बहुत खूब! आपने सीता और जनक के उदाहरण से एक अबला के पिता की पीड़ा का अच्छा चित्रण किया है.