कब यह वक़्त बदलेगा
कब यह वक़्त बदलेगा-
वक़्त क्यों बार बार बदल जाता है,
क्यों इसे किसी का हँसता चेहरा नहीं भाता है,
चार पल की खुशी इससे देखी नहीं जाती,
पल ही पल में गम का बादल घिर आता है.
शांत मन से उठता है सुबह सुबह यह आदमी,
बड़े उत्साह से समाचार पत्र उठाता है-
दुर्घटना, मारकाट, भ्र्ष्टाचार, बलात्कार-
इन सब के पढ़ कर समाचार —
मन ही मन एक असहाय सा-
जीव बन कर रह जाता है,
फिर भी मज़बूरी के आलम में-
अपनी दिनचर्या करता है आरम्भ
दिन भर के काम सोच सोच कर –
जैसे फूलने लगता है उसका दम।
बिजली का बिल, कहीं राशन की लाइन,
कंही बच्चो के स्कूल की फीस,
गैस का सिलिंडर , कहीं ट्रैफिक का बवंडर
कैसे कैसे ज़रूरी काम. आज करने है तमाम
और उस पर नियम से काम धंधे पे जाना,
जीने के लिए मेहनत से कमाना –
बस इसी में उलझ कर रह जाता है इंसान –
खुशियों से रहता है कितना अनजान,
और फिर सोचता है– कब यह वक़्त बदलेगा-
कब ख़ुशी के बादल छायेंगें,
और सब मेहनतकश इंसान भी –
जीवन में सुख पायेंगें —जय प्रकाश भटिया
१७/१०/२०१४