“एक छाँव”
साये की तरह
मैं तुम्हारा पीछा कर रहा हूँ
हो गए हैं बहुत दिवस
व्यतीत हो चुके
न जाने कितने बरस
पर तुम नदी कि तरह
भागती ही जा रही हों
चंचल हैं
तुम्हारे मन का लहर
पल भर के लिए भी ठहरती नहीं हो
मेरे समक्ष
तुम्हे मिली नहीं फुरसत
तुम्हे क्या वह क्षितिज प्रिय हैं
जो अप्राप्य हैं
छूना चाहती हो महत्वाकांछा का
सबसे ऊंचा शिखर
तुम्हारे स्वागत में हर मोड़ पर
खड़ा रहता हूँ
लेकिन तुम
मुझे देखते ही
कोहरे की लकीर सी जाती हो सरक
मैं यह नहीं कहता की
तुम पर मेरा हैं हक़
मैं तो सिर्फ एक छाँव हूँ
मौन का गहन प्रभाव हूँ
कहीं तुम जिंदगी की तरह तो नहीं हो
जिसे कोई नहीं पाया हैं
अब तक समझ
— किशोर कुमार खोरेन्द्र
बढ़िया !
अच्छी कविता .