“मैं एक किताब हूँ “
तुम्हारे और मेरे बीच
शब्दों की ईटों से
बना हुआ हैं एक पुल
मैं एकांत में रहता हूँ
जैसे जंगल में खिला होऊं एक फूल
तुम महानगर में रहती हो
सात समुन्दर दूर
अपने मौन को
करता रहता हूँ अभिव्यक्त
मेरे मन के
कोरे कागज़ पर अनलिखे अक्षरों को
पढ़ लेती हैं तुम्हारी रूह
न तुम्हारा नाम जनता हूँ न पता न रूप
तुम कौन हो मुझे नहीं मालूम
मुझे लगता हैं मानों मैं एक किताब हूँ
तुम्हारी अनदेखी तस्वीर
जिसका
बन गयी हो पृष्ट आमुख
किशोर कुमार खोरेन्द्र
खोरेंदर भाई बहुत अच्छी कविता लिखी है.
shukriya gurmel ji
अच्छी कविता.
shukriya vijay ji