“सपना”
“सपना”
सपनों मे मुझे बादल
आ घेरते हैं
रेत ..मेरे पांवो मे धंस जाते हैं
नदी …मुझमे
डूबती चली जाती हैं
रास्ते ..मुझ पर से चलने लगते हैं
लेकीन मै चाहता हूँ
हर रात
स्वप्न वही से आरम्भ हो
जहाँ पर वह मुझे
पिछली रात छोड़ गया था
पर ऐसा होता नही कभी
हर बार मुझे रेल की तरह
नए सुरंगों से होकर
या
कभी तुम्हें और मुझे
दो समानांतर पटरियों सा –
गुजरना ही पड़ता है
वो बादल था या किसी का आँचल
वो नदी थी या किसी का प्यार
वो रेत थी या किसी की देह
इस दुनियाँ की ही तरह
सपनो मे भी
सब कुछ अधूरा ही रह जाता ही
मेरे बहुत करीब आकर
पर्वत मुझे अकेला छोड़ जाता है
तुम्हें भी तुम्हारे सपने बुला लेते होंगे
मेरे सपनो मे तुम रहती हो
पर मै तुम्हारे सपनो मे हूँ या नही …
तुमसे कैसे पूंछू
कितना अच्छा होता
हम सभी स्वप्न मे भी मिलते
और
मेरा स्वप्न –
तुम्हारे स्वप्न से पूछता …
क्या मै तुम्हारे स्वप्न में हूँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत अच्छी कविता .
बहुत खूब !
shukriya vijay ji