कविता

नजरिया

मनीष मिश्रा “मणि ”

कुछ इस तरह बीता
वक्त से गुफ्तगू का दौर
कहा डाला बहुत कुछ
निकाली मन की भडास सारी
वो खामोश सुनता रहा
मेरे ताने उलाहने शिकायते
मुस्कुरा भी लेता था
बीच में कभी कभी
मैं हैरान सोचा करता
जालिम हो गया है यह
जुल्म करते करते
थक गया फिर मैं
खोकर सारा साहस शक्ति
वो बना रहा मगर
वैसा ही जैसा पहले था
फिर तोड़ा मौन उसने
और समझाने लगा प्यार से
शिकायत करता है तू
जो ना मिला तुझे
तेरी उम्मीद सा सुखद
सुहाना सा लुभावना सा
निकल बाहर अपने आप से
बदलकर देख सोच तेरी
समझ महत्व उसका
जो मिला तुझे पाया तूने
जी ही नहीं पाया तू
आया था जीवन में तेरे
देने को सब कुछ
तू भागता रहा पीछे
कल्पित तृष्णाओं के
सच मैं बहुत खुश हूं अब
जीते हुए जिंदा होकर
बदल दिया है क्योंकि मैनें
सोचने का समझने का
नजरिया……

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