नदी
आँसुओं से तर लगती है नदी
रेत के नीचे बहती है एक और नदी
वो विशाल वृक्ष कितना तन्हा है
उम्मीदों के पक्षी रहते है वहीं
मुझसे खुद को अलग न समझ
मेरे ख्यालों से तू जाएगी नहीं कभी
तेरे दर्द से भींग गयीं मेरी आँखें
प्यार इसे ही तो कहते है सभी
तू इस तरह से मायूश न हो
तुझमे ही है एक राह नयी
किनारे तक तेज लहर फिर आएगी
मंझधार में एक नाव फिर आज फँसी
किशोर कुमार खोरेंद्र
बढ़िया!
बहुत अच्छी कविता भाई साहिब .
shukriya gurmel ji