प्रतिमा
इस जहाँ मेँ जब भी आता हूँ
तुम्हें ही तो मैं गुनगुनाता हूँ
दूर दूर तक फैला है खारा सागर
यादों की मीठी लहर सा लौट आता हूँ
मेरे मन मंदिर की तुम प्रतिमा हो
अखंड जोत सा जलता जाता हूँ
डूब जाता है जब घाटियों के पीछे सूरज
तन्हाई की झील मे चाँद सा उभर आता हूँ
अंतहीन होती है प्यार की कहानी
मैं तुमसे कभी कहाँ मिल पाता हूँ
किशोर कुमार खोरेंद्र
अच्छी ग़ज़ल.
shukriya vijay ji
अति सुन्दर !
shukriya manjit kaur ji
बहुत खूब भाई साहिब .
shukriya gurmel ji