कविता : मुझसा कोई..
मुझसा कोई..
होता रहता है अक्सर
मेरे साथ ऐसा
हर नौजवान बनाता है
जीवन की सोच
गढ़ लेता है मुकाम
लक्ष्य की तरह
जहां तक पहुंचा हूं मैं
कितने जतन से
उसे दिखती है सिर्फ
सिर्फ ऊँचाइयाँ
वो वाकिफ नहीं
सत्य की परिभाषा से
अलग है यथार्थ
रोकते हैं अपने ही
खडे होते हैं विरूद्ध
होता है सामना
मुश्किल हालातों से
बन जाती हैं परिस्थितियां
बेहतर या बदतर
टूट भी जाता है
हौसला जीने का
फिर उठना होता है
समेटकर सब कुछ
चलना होता है अनवरत
पर फिर भी
भर जाता है हर्ष
दिल की गहराई में
क्योंकि जीने लगता हूं
साथ साथ उसके
और ढ़ूढ़ने लगता हूं
उसमे मुझसा कोई..
बढ़िया कविता, मनीष जी.
शुक्रिया धन्यवाद आभार.. गुरमेल सिंह भमरा साहब..
बहुत अछी कविता .