प्रीत की डोरी
उदगम से सागर जितनी
यह कैसी है दूरी
रास्ते कहते है
चलते रहो
नदियाँ कहती है
संग मेरे
बहते रहो
बिना पंख कैसे उडू
तुमसे मिलवाने की
हवा की साध
रह गयी है अधूरी
एक दूसरे के मन में
हम है समाए
दोनों की नज़रों ने
की है
एक दूसरे की छवि
की चोरी
मौन के धागों से
गुँथी हुई है
अद्र्श्य सी
तुम्हारे ह्रदय से
मेरे हृदय तक
प्रीत की डोरी
किशोर कुमार खोरेंद्र
अच्छी कविता, किशोर जी.
shukriya vijay ji
बहुत अच्छी कविता भाई साहिब .
protsahit karne ke liye shukriya gurmel ji