क्या कहूँ ..तुमने तो सब कह दिया
क्या कहूँ ..तुमने तो सब कह दिया”
समुद्र ने मुझे
रोकना चाहा
लहरों के हाथ मुझे
बुलाते रहे
उसकी पुकार को मेरा
लौटता हुआ मन
सुनता रहा
पर्वत के छत पर
टहलते बादलो ने
मुझे घेर लिया
प्रपात की धारो की छलांग
से उत्पन्न नाद से
खुश ..घाटियों ने
धुंए की तरह
मुझे जकड़ना चाहा
मुझे ठहरने के लिए
आग्रह करते
पुष्पों की महक को –
मेरा लौटता हुआ मन
अस्वीकार करता रहा
जंगल के एकांत के
शीतल शांत
संगमरमर के पत्थरो से
बनी सीढियों से उतरता हुआ
मै लौट रहा हूँ
हे कल्पना तुम तक ….
तुम्हारी करुणा के
उदार महासागर तक …
तुम्हारे प्रेम की
अन्नत ऊँचाईयों तक …
शायद मेरी कल्पना
मुझसे अब कहेगी –
क्या कहूँ ..
तुमने तो सब कह दिया
किशोर कुमार खोरेंद्र
shukriya vijay ji
अच्छी कविता.