चितचोर
अंतरिक्ष के हाथो से
छूट गयी है आकाश में डोर
कटी पतंग सा उड़ रहा हूँ
मैं न जाने किस छोर
अपनी अंजुरी में भर लेता हूँ
चाँद सितारों को
मिटा देती है उसे
लहरो की एक तेज हिलोर
रोशनी हो तो
हम उभर आते हैं
शून्य में यूँ तो
तम है हर ओर
काँटा चुभता है तो
दर्द होता ही है
दूर से कहाँ सुनाई देती है
सागर की
भीषण गर्जनाएँ घनघोर
मेरी पीड़ा को तुम
एक ही नज़र में भाँप लेती हो
मेरी खामोशी को पढ़ लेती हो
तुम हो चितचोर
कोलाहल के भीतर छुपा होता है
गहरा मौन
गहन खामोशी लेकर आती है
विप्लवकारी शोर
किशोर कुमार खोरेंद्र
बहुत सुन्दर कविता, भाई साहब !
खोरेंदर भाई , किया धमाकेदार कविता लिखते हैं , मज़ा आ गिया .
shukriya gurmel ji
बहुत बढिया
shukriya vibha ji