कृष्ण प्राणप्रिये (भाग १)
मैं रिक्त हूँ जैसे सूखा घड़ा
और चरणों के समक्ष आ हुआ खड़ा
मैं प्यासा जैसे धरती प्यासी
और तुम रस घट घट के वासी
मैं टूटा जैसे वृक्ष से हों पात
और डूबा जैसे चंदा प्रभात
मैं हारा जैसे अर्जुन हारा
और गांडीव बन गिरा ये मन सारा
मैं फूट पड़ा ज्यों अश्रुधार
और करुण कंठ से नाम पुकार
मैं हँसता जैसे मुरझाते फूल
और उड़ जाता जैसे नीरस धूल
मैं उठता जैसे झुकता सूरज
और खड़ा जैसे उड़ता सा ध्वज
मैं अपनों में जैसे बौराया सा
और तुम बिन बस घबराया सा
मैं चरणधूल भी नहीं मांगता
मैं मोक्ष मुक्ति भी नहीं जानता
मैंने सुना है तुम ऐसे अपने दीवानों को
कंठ सदा लगाते हो
मैं इसीलिए बस आया हूँ क्यूंकि
तुम प्राणप्रिये कहलाते हो
प्रेम सदा सब ही करते पर उनके भी
जिय उरझाते हो
मैं इसीलिए बस आया हूँ क्यूंकि
तुम कहते हैं प्यार निभाते हो
___________—सौरभ कुमार
श्रधा में रंगी कविता अच्छी लगी .
अच्छी भक्तिपूर्ण कविता.