कविता

कृष्ण प्राणप्रिये (भाग १)

मैं रिक्त हूँ जैसे सूखा घड़ा

और चरणों के समक्ष आ हुआ खड़ा

मैं प्यासा जैसे धरती प्यासी

और तुम रस घट घट के वासी

मैं टूटा जैसे वृक्ष से हों पात

और डूबा जैसे चंदा प्रभात

मैं हारा जैसे अर्जुन हारा

और गांडीव बन गिरा ये मन सारा

मैं फूट पड़ा ज्यों अश्रुधार

और करुण कंठ से नाम पुकार

मैं हँसता जैसे मुरझाते फूल

और उड़ जाता जैसे नीरस धूल

मैं उठता जैसे झुकता सूरज

और खड़ा जैसे उड़ता सा ध्वज

मैं अपनों में जैसे बौराया सा

और तुम बिन बस घबराया सा

मैं चरणधूल भी नहीं मांगता

मैं मोक्ष मुक्ति भी नहीं जानता

 

मैंने सुना है तुम ऐसे अपने दीवानों को

कंठ सदा लगाते हो

मैं इसीलिए बस आया हूँ क्यूंकि

तुम प्राणप्रिये कहलाते हो

प्रेम सदा सब ही करते पर उनके भी

जिय उरझाते हो

मैं इसीलिए बस आया हूँ क्यूंकि

तुम कहते हैं प्यार निभाते हो

___________—सौरभ कुमार

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “कृष्ण प्राणप्रिये (भाग १)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    श्रधा में रंगी कविता अच्छी लगी .

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी भक्तिपूर्ण कविता.

Comments are closed.