कृष्ण प्राणप्रिये (भाग २)
जग छोटी छोटी माला लेकर
नाम तुम्हारा रटता है
क्षण क्षण ऐसे भक्तों का बस
ऐसे ही माधव कटता है
जो झुककर चरण पखार रहे
जो तुमपर प्राण निछार रहे
जो देख तुम्हे बस रोते हैं
या अपना आपा खोते हैं
ऐसे बिरले दीवानों में
एक नाम मेरा भी जोड़ लो तुम
मेरा मारग जिस ओर भी है
बस अपनी ओर ही मोड़ लो तुम
मैं भी कबसे बैठा हूँ
खुद ही खुद से ऐंठा हूँ
टूटा हूँ मैं झरने जैसा
जीवित हूँ पर मरने जैसा
बस याद तुम्हे ही करता हूँ
रो रो याद में मरता हूँ
कभी यमुना तक दौड़ा जाऊं
कभी मिलन गीत मैं ही गाऊं
पर तुम कभी ना आते हो
मुझको ना दरस दिखाते हो
मैं पाता हूँ तब खुद को हारा
अपनी किस्मत का ही मारा
सपनो में तुमको पाया था
तब मन ही मन में गाया था
पर आँख खुली तो बस तम था
अमिलन का मुझमे केवल गम था
इसीलिए कृपा कर करुनासिंधु मेरा
ये बंधन खुद तोड़ लो तुम
मेरा मारग जिस ओर भी है
बस अपनी ओर ही मोड़ लो तुम
_____—सौरभ कुमार
आपका धन्यवाद जी
अच्छी कविता है सौरव जी , आगे भी इंतज़ार रहेगा .
आपकी कविता का दूसरा भाग भी अच्छा है.