सावन की घटा
मेरे ह्रदय की
जमुना की धारा का
तुम्हारे ह्रदय की
पावन गंगा की धारा में
हो जाए विलय
जाते जाते सावन की घटा
कह रही यह सविनय
मुझ मधुप के
तृषित अधरों का
तुम्हारे अधरों की विरहणी
पंखुरियों से
हो जाए प्रणय
मेरे आलिंगन के सुदृढ़
पाश में
जीवन के मधुमय बसंत का
तुम्हारे अंग अंग
समझ जाए आशय
तुम्हारी तरुणाई के पुष्प में
जो मधुरस का है संचय
वह कभी खत्म न हो
चाहे आ जाए प्रलय
चांदनी की किरणों सी
तुम्हारी मुलायम अलकों की
छाँव में
मेरे अनुराग का
तुम्हारे अनुराग से
होता रहे यूँ ही
निरंतर विनिमय
कभी चूम लूँ तुम्हारे नयन
कभी खींचे मुझे अपनी और
तुम्हारी गालो की लालिमा का
कोष अक्षय
प्रेम न जीत है
न पराजय
निज को भूलाकर
एक दूजे के
मन की सुरम्य वादियों में
रहने का बस
हम दोनों कर ले निर्णय
जाते जाते सावन की घटा
कह रही यह सविनय
किशोर
खोरेंदर भाई , बहुत अछे .
shukriya gurmel ji
अच्छी कविता.
shukriya vijay ji