वर्षों से लागे है जैसे इमाम के ईमान को आ रहा बुखार
अब मियादी हो चला दिल -दिमाग से चलो दें इसे बुहार
मालिक को काटे है गैरों के तलवे चाटे है यह
भले समाज में दीमक के कीटाणू फैलाये है यह
खुदा के नाम पर खुदाई कर गड्ढे नहीं करने देंगे
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई भाई मिलकर मिट्टी भर देंगे……
अच्छी कविता. इस बुखारी के बुखार को अब हमेशा के लिए उतार देने का वक्त आ गया है.