अभिव्यक्तियाँ
मेरे संभावित उपन्यास की
तुम हो नायिका
महाकाव्य हो मेरा
तुम अनलिखा
मन ही मन तुम्हें
पढता रहता हूँ
ख्यालों में तुम्हे
बुनता रहता हूँ
मेरे सपनो की
तुम ही हो मलिका
तुम न
अपने जीवन की
कहानी सुनाती हो
न रहस्यमयी
अपनी कविता
मौन ही रहती हो
जैसे जलती है
विरह की अग्नि से
प्रज्वलित होकर
अविरल
एक दीपशिखा
मैंने तुम्हे अपने
ह्रदय की वादियों में
चन्दन वन सा
बसा लिया हैं
जैसे झील ने चाँद की
सुन्दर छवि को हो
अपना लिया
प्रेम के बदले प्रेम मिले
यह जरूरी नहीं हैं
मैं तो सिर्फ पुजारी हूँ
और तुम हो देवी सी
एक सजीव प्रतिमा
न शब्द मिलते हैं
न आबद्ध हो पाते हैं छंद
न तुम्हारी
तस्वीर बना पाता हूँ
न गढ़ पाता हूँ
तुम्हारी मूर्तियाँ
तुम्हारे दिव्य रूप के समक्ष
बेबस सी है
मेरी सारी अभिव्यक्तियाँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
सुन्दर !