दिल्ली की रावण लीला
राजधानी के रामलीला मैदान में 4 जून 2011 को ऐक रावण लीला हुयी थी जिस के कारण ऐक निहत्थी महिला राजबाला का देहान्त हो गया था। स्वामी रामदेव के योग-शिविर में उस रात निद्रित अवस्था में निहत्थे स्त्री-पुरुषों, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों पर कमिश्नर दिल्ली पुलिस की देख रेख में लाठी चार्ज किया गया था। वह घटना इतनी अमानवीय थी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय की आत्मा भी उन रावणों के अत्याचार से अपने-आप सजग हो गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने तब तत्कालीन सरकार को बरबर्ता के दोषियों के खिलाफ कारवाई करने के आदेश दिये थे। उस के बाद थाने में ‘अज्ञात’ दोषियों के नाम पर ऐफ़ आई आर दाखिल की गयी थी मगर उस के बाद से आज तक क्या हुआ…सभी को सांप सूंघ गया और सभी गहरी नीन्द में आज तक क्यों सो रहै हैं।
न्यायपालिका
आम तौर पर हमारे न्यायाधीश अपनी अवमानना के प्रति सजग रहते हैं और किसी को भी फटकार लगाने से नहीं चूकते। परन्तु हैरानी की बात यह है कि जब स्वयं उच्चतम न्यायालय ने इस घटना का कोग्निजेंस लेकर सरकार को निर्देश दिये थे और उन आदेशों की आज तक अनदेखी करी जा रही है तो इस मामले को गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया? यदि न्यायालय के आदेश की अनदेखी इस तरह होने दी जाये गी तो जनता का विशवास न्यायपालिका में कैसे रहै गा? जनता में तो यही संदेश जाये गा कि शायद न्ययपालिका को भी राजनेताओं से और उच्च अधिकारियों से अपमानित होने की आदत हो चुकी है।
विविध आयोग
हमारे देश में कई तरह के आयोग हैं जिन के अध्यक्ष राजनेता या उन के रिश्तेदार होते हैं। यह आयोग बच्चों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिये बने हैं। कभी कभार यह आयोग पहुंच वाले आरोपियों के हितों का संरक्षण करने कि लिये सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ हस्तक्षेप करने के लिये मैदान में भी उतरते हैं। इशरतजहां, सौहराबूद्दीन, जाकिया जाफरी को इनसाफ दिलाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं परन्तु बेचारी राजबाला जैसी महिलाओं के साथ जुल्म या किसी मासूम के साथ बलात्कार भी हो जाये तो इन आयोगों को नीन्द से जगाना पडता है। साधारण जनता के मामलों से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। अगर होता तो राजबाला के केस में भी अब तक कई पुलिसकर्मी जेलों मे जाकर वहीं से रिटायर भी हो चुके होते। आयोगों से कोई उम्मीद लगाना भैंसे का दूध दोहने जैसी बात है।
मीडिया
अगर किसी मीडिया – कर्मी को पुलिस या किसी राबर्ट वाड्रा जैसे व्यक्ति के कारण छोटी-मोटी चोट लग जाये तो हमारा मीडिया दिन-रात उसी मुद्दे पर विधवा–विलाप करता रहता है, लेकिन इस घटना पर मीडिया पिछले तीन वर्षों से क्यों चुप्पी साधे बैठा रहा है? कुछ गिने-चुने मिडियाई पेशेवर बहस करने वाले प्रवक्ता संजय-दत्त की पैरोल, सचिन को भारत-रत्न बनाने की सिफारिश, तरुण तेजपाल की बेगुनाही आदि के बारे में विशेष बहस करते हैं उन्हों ने दिल्ली की जनता के खिलाफ़ इस अन्याय पर क्यों बहस नहीं करी ?अनदेखी का यह मुद्दा क्या इनवेस्टीगेटिव जनर्लिज्म के कार्य क्षेत्र में नहीं आता? मीडिया स्टिंग-आप्रेशन या जांच पडताल से क्या पता नहीं करवा सका कि इस ऐफ़ आई आर पर क्या तफ्तीश करी गयी है? क्या इस केस में अब कोई सनसनी या आर्थिक लाभ नहीं?
राजनेता
हमारे राजनेता अकसर भडकाऊ भाषणों से जनता को हिंसा और तोडफोड के लिये उकसाते हैं, निषेध आज्ञाओं का उलंघन करवाते हैं, और अपनी गिरफ्तारी के फोटो निकलवाने के तुरन्त बाद जमानत पर रिहा हो कर अपने घरों को भी लौट जाते हैं। बस, इस से आगे वह अदृष्य हो जाते हैं। अगले चुनावों तक उन का कुछ पता नहीं चलता। इस घटना-स्थल में रहने वाली जनता की सेवा का जिम्मा आजकल जिन नेताओं के पास है वह दिल्ली में सरकार बनाने के चक्कर में व्यस्त हैं। चुनाव के समय ही जनता में दिखाई पडें गे। वैसे नयी दिल्ली विधान सभा क्षेत्र के विधायक केजरीवाल हैं। उन से अपेक्षा करनी चाहिये कि वह इस घटना की स्टेटस रिपोर्ट जनता के सामने रखें।
अपराधी कौन – ?
उस घटना को बीते आज तीन वर्ष पांच महीने बीत चुके हैं। लेकिन राजबाला की आत्मा को आज भी इन्तिजार है कि सर्वोच्चन्यायालय की फटकार के बाद भी इस देश में चेतना आये गी। क्या दिल्ली पुलिस को आज तक भी यह पता नहीं चला कि वह‘अज्ञात’ लोग कौन थे जिन के विरुद्ध रिपोर्ट लिखी गयी थी? उस थाने के प्रभारी, उस इलाके में जनता के प्रतिनिधि – पार्षद, विधायक, सासंद ने क्या यह जानने की कोशिश करी कि ऐफ़ आई आर पर अभी तक क्या कारवाई करी गयी है? वह ‘अज्ञात’अपराधी अब तक क्यों नहीं पकडे या पहचाने गये? कौन किस से पूछ-ताछ करने गया?
राजबाला का परिवार, स्वामी रामदेव, तत्कालीन मुख्य मन्त्री शीला दिक्षित, उस काल की सर्वे-सर्वा सोनियां गांधी, प्रधान मंत्री मनमोहन सिहं, गृह मंत्री शिन्दे, सलाहकार कपिल सिब्बल, चिदाम्बरम और कई अन्य छोटे-बडे लोग, सभी दिल्ली में तो रहते रहै हैं। क्या किसी को भी नहीं पता कि देश की राजधानी में इतना बडा कांड जिस ने देश को विदेशों में भी शर्म-सार किया था, जिस काण्ड ने उच्चतम न्यायालय की आत्मा को भी झिंझोड दिया था वह किन ‘अज्ञात’ अपराधियों ने करा था? वह आज तक पकडे क्यों नहीं गये? क्या वह ऐफ़ आई आर अभी तक फाईलों में जिन्दा दफ़न है या मर चुकी है?
सरकार की गुड-गवर्नेंस
इस रावण लीला के समय केन्द्र और दिल्ली, दोनो जगह काँग्रेस की सरकारें थीं। इसलिये उस समय के प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री को जबाब देना चाहिये कि पिछले तीन वर्षों में ‘अज्ञात’ अपराधियों की पहचान अब तक क्यों नहीं करी गयी? उन्हें पता था कि दिल्ली में स्वामी रामदेव योग शिविर करने वाले थे जिस में काले धन का मुद्दा भी उठाया जाये गा। जब स्वामी रामदेव दिल्ली आये थे तो उन का स्वागत केन्द्र सरकार के वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी, कानून तथा मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल तथा अन्य मन्त्रियों ने किया था। उन के बीच में बातचीत के कई दौर भी चले थे। फिर क्या कारण थे कि अचानक रात को सोते हुये निहत्थे लोगों पर ‘अज्ञात’ लोगों ने लाठिया बरसानी शुरु कर दीं थीं?
देश की राजधानी में इतने मन्त्रियों के रहते कोई साधारण पुलिस अधिकारी इस तरह का निर्णय नहीं ले सकता था। केन्द्र और दिल्ली सरकार दोनो का यह भी पता था कि उस रात स्वामी रामदेव को गिरफ्तार कर के किसी अज्ञात स्थान पर भेजा जाये गा जिस के लिये ऐक हेलिकापटर पहले से ही सफदरजंग हवाई अड्डे पर तैनात था। अतः अगर वरिष्ठ केन्द्रीय मन्त्रियों से पूछा गया होता तो अब तक ‘अज्ञात’ अपराधियों का पता देश वासियों को लग जाना था। क्या हम यह मान लें कि हमारी पुलिस इतनी गयी गुज़री है कि वह इतनी देर तक यह पता नहीं लगा सकी? क्या हमारे देश में गुड-गवर्नेंस के यही मापदण्ड हैं? नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये अभी पांच महीने ही हुये हैं इस लिये इन्तिजार करना पडेगा कि वह इस विषय में क्या करती है।
स्वामी रामदेव ने तो चाण्क्य की तरह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का अनथक प्रयास किया है और काँग्रेसी सत्ता को मिटाने में नरेन्द्र मोदी की भरपूर कोशिश करी है। अब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का उत्तरदाईत्व है कि 2011 की रावण-लीला के दोषियों के साथ क्या कानूनी कारवाई करी जाये ताकि भारत स्वाभिमान के योगऋषि रामदेव को न्याय दिलाया जा सके। आज कल दिल्ली की सातों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं जो इस केस को निष्कर्ष तक लेजाने के लिये प्रयत्नशील होने चाहियें।
अपनी मृत-आत्मा को पुनर्जीवन दो
सहनशीलता, अहिंसा, सदभावना, धर्म निर्पेक्षता आदि शब्दों के पीछे भारत के नागरिक अपनी लाचारी, अकर्मण्यता और कायरपने को छुपाते रहते हैं। उन के राष्ट्र नायक-नायिकाओं की श्रेणी में आजकल खान-त्रिमूर्ति, तेन्दूलकर, धोनी, और सनी लियोन जैसे नाम हैं जिन के मापदण्डों पर राजबाला जैसी घरेलू महिलाओं का कोई महत्व नहीं। इसलिये भारत में अगले दो सौ वर्षों तक अब कोई युवा-युवती भगत सिहं या लक्ष्मी बाई नहीं बने सकते क्योंकि हमारे पास अब उस तरह का डी ऐन ऐ ही नहीं बचा। वैसे तो सभी राजनेताओं, मीडिया वालों को, और तो और काँग्रेसियों को भी काला धन की स्वदेश वापिसी में देरी के कारण नीन्द नहीं आ रही और वह नरेन्द्र मोदी को लापरवाही के ताने देते रहते हैं, लेकिन जिस महिला ने कालेधन की खोज के लिये अपनी जान की बलि दी थी उस को न्याय दिलवाने के लिये कोई सामने नहीं आया।
इस वक्त यह सब बातें मामूली दिखाई पडती हैं लेकिन सोचा जाये तो मामूली नहीं। जब हम व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं तो सोचना होगा कि वह कौन ‘अज्ञात’ लोग हैं जो पूरे तन्त्र पर हमैशा हावी रहते हैं। जिन के कारण राजबाला को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद भी इनसाफ नहीं मिलता और सुप्रीम कोर्ट भी अवमानना को इस तरह क्यों सह लेती है। राजबाला तो हमैशा के लिये इस भ्रष्ट तंत्र के मूहं पर कालिख पोत कर जा चुकी हैं लेकिन अगली बार आप में से किसी के घर की सदस्या भी राजबाला हो सकती है – यह समझने की जरूरत हम सभी को है।
अगर आप की आत्मा जाग रही है तो इस लेख को इतना शेयर करें कि मृत राजबाला की चीखें बहरे लोगों को भी चुनाव के समय तो सुनाई दे जायें। हम यह गीत देश भक्ति से ज्यादा नेहरू भक्ति के कारण गाते रहते हैं जिसे कभी दिल से भी गाना चाहिये – इस गीत को चुनाव का मुद्दा बना दो –
जो शहीद हुये हैं उन की ज़रा याद करो कुरबानी।
अच्छा लेख. उस रावण लीला के खिलाडियों को दंड देना आवश्यक है जो अभी तक नहीं दिया गया है.