कविता : उदासी का अक्स
कल रात आसमान से चाँद गायब था।
आज सुबह खिड़की से बाहर देखा
तो अशोक का वृक्ष गायब था।
इतनी खामोशी थी कि मुझे पता चल ही गया
कि सुबह सुबह कूँकने वाली कोयल भी गायब है।
रौशनी थी चूँकि सूरज उग रहा था।
हवा थी क्योंकि उसे नाराज़ होना नहीं आता था।
पास के पोखर में जल था
क्योंकि वह सूखना शुरु करता और बरसात आ जाती।
कोयल उड़ गई थी किसी अनजाने एकांत के लिए।
बस मेरा कुसुर इतना ही था
कि मैंने उससे कहा था
कि तुम इतना मत गाओ
कि लोगों को संदेह हो जाए
तुम्हारे कोयल होने पर।
वह बुरा मान गई और उस दिन उसने
एक जादुई गीत गाया आँसू बहाते हुए
उसके आँसुओं में बह गया अशोक का पेड़
आस पास खड़े कितने ही पेड़ काँपते रहे बिना आँधी के।
मुझे अब भी भरोसा है,
एक दिन किसी बटुक-सा लौट आएगा अशोक का पेड़
पर कह नहीं सकता लौट आएगी कोयल
क्योंकि उसके हृदय में जमा था
ज्वालामुखी से निकला लावा
ज़रूर उसके आँसूओं में खून भी रहा होगा।
मेरे कानों में अब भी झंकृत हैं
उसकी मादक स्वर लहरियाँ
मैं नहीं कर सकता जीवन की कल्पना
उस आत्मीय संगीत के बिना।
आज मुझे अहसास हो रहा है
कि हम कैसे जिए चले जाते हैं
जीवन में असंख्य लालसाओं के साथ
मृत्यु की छाया के पीछे दौड़ते हुए!
———- राजेश्वर वशिष्ठ
बहुत अच्छी कविता है .
बहुत अच्छी कविता, राजेश्वर जी.