कुछ भी नहीं
जब मैने तुम्हें
गौर से देखा
तो तुम्हारी
आँखों की खामोशी ने
मुझसे यह बात कही
तुम मेरी कविता हो
और मैं हूँ तेरा कवि
मैं इतराता बादल हूँ
तो
तुम भी तो हो
एक शोख नदी
सागर सा
तुम्हारे हृदय में भर चुका हूँ
संभल कर चलना
कही छलक न जाए
तुम्हारे मन की
प्यार के अमृत से
भरी गगरी
मैं तुम्हारे
नाम से मिट चुका हूँ
मेरा अस्तित्व
तुम्हारे वजूद में मिल चुका है
मेरे भाव तुममे विलीन हो चुके हैं
शेष अब मुझमे
बस तुम्हारी
आराधना ही रही
तेरा अलौकिक रूप
निहारने को तरस रहा हूँ
तू कब तक रहेगी
बनकर परदानॅशी
अपनी रूह के नूर की
नजम को
मेरी निगाहों मे
आकर पढ़ लो
मैं तुम पर
अब लिखी हुई
एक किताब के सिवा
और कुछ भी नही
किशोर कुमार खोरेंद्र
वाह वाह !
shukriya vijay ji