विस्तार
तुम्हारे दवारा दिल से
तारीफ किए गये
आईने के काँच में
मैं और खूबसूरत
लगाने लगी हूँ
मेरी आँखे तुम्हें
कमल की पंखुरियों
की तरह लगती हैं
मेरे होंठ
और गुलाबी हो गये हैं
मैं पानी सा
पसरती जा रही हूँ
तुम मुझे
रेत की तरह
आत्मसात
करते जा रहे हो
मैं कहाँ से लाउँ
इतना प्यार
जो पा सके
तुम्हारे प्रेम के अनुरूप
सहारा के मरुथल जितना विस्तार
तुम मुझे परत दर परत
छिलते जा रहे हो
मैं अपने मन
अपनी रूह को
तुम्हारे हवाले कर चुकी हूँ
तुम मुझे खोजो
मैं तुम्हारी रगों में
महा नदी सी बह रही हूँ
किशोर कुमार खोरेंद्र
अच्छी कविता
बहुत अच्छी कविता , इस को आताम्समार्पण कह लें तो कोई अत्कथिनी नहीं होगी .
shukriya gurmel ji