निर्निमेष निहारते हैं
पेड़ की ओट ..
हो जाता हू
तब भी देख लेता है
मुझे सूर्य का अरुण
मुझे ढूंढ़ लेती है
सिंदूरी किरणे हो ब्याकूल
अज्ञात की उंगलियों सा –
छू लेते है
झुकी हुई टहनियों के
सुकोमल नाखून
अपने आँचल में छिपाकर
संध्या …
रख आती है
मन्दिर के द्वार मुझे अबूझ
न निगल पाता है मुझे तिमिर
न बुझा पाते है
समीर के बदलते रुख
निर्निमेष निहारते है
मुझे
आकाश के अनंत
चमकते प्रसून
संसार की नीरवता
सुनती है तब ….
मेरी लयबद्ध धडकनों को –
अपने अनुकूल …
किशोर
वाह वाह !!
shukriya vijay ji
बहुत अच्छी लगी .
shukriya gurmel ji