काश मैं भी परिंदा होता
आज के इंसान की ज़िंदगी-
जैसे सलाखों के पीछे कैद ,
लगती हैं कारावास सी,
कुछ सलाखें हैं व्यावसायिक मज़बूरी की,
कुछ सलाखें हैं पारिवारिक दायित्व की,
कुछ धर्म की, कुछ समाज की,
कुछ सरकारी नियमों की
कुछ असहकारी मित्रों की,
और बाहर खड़े हैं पहरेदार–
कुछ मित्र , कुछ रिश्तेदार,
कुछ जाने, कुछ अनजाने,
कर्तव्यों की ज़ंज़ीर में जकड़ा हुआ आदमी,
न कहीं फ़रियाद, न सुनवाई ,
न कोई तसल्ली न कोई दुहाई,
बस , बेबस सा उम्र कैद की सजा काट रहा है,
और कभी कभी देख लेता है -आकाश की और-
निहारता है उड़ते परिंदो को,
और सोचता है–
काश मैं भी परिंदा होता-
उन्मुक्त ,और स्वछंद
और इस उम्रकैद से स्वतंत्र
–जय प्रकाश भाटिया
बहुत अच्छी कविता लगी , धन्यवाद भाटिया जी .
बहुत अच्छी कविता, भाटिया जी.