ज़मीर
पानी पर खिंच रहा हूँ लकीर
मन मेरा न जाने क्यों है अधीर
मिटा गया हैं
अपनी उँगलियों से समीर
मिल गया था किनारा
ख़्वाब देखने लगा था हसीन
एक अकेले सफ़ीना सा
फिर मँझधार में पहुँच गया हूँ
तन्हाई का महासागर हैं असीम
फिर से सफर
हो गया है कठिन
उठाकर
मुझे भी उछाल दे
जल की सतह पर फिसलते फिसलते
मैं भी पहुँच जाऊंगा तुम्हारे करीब
तुम्हारी तरह
तुम्हारे शहर में भी है कशिश
मेरे पैरों तले
खिसक गयी है जमीन
मैं शरीर हूँ
तुम हो मेरा जमीर
किशोर कुमार “खोरेन्द्र”
गहरा अर्थ लिये रहस्यमय कविता.