आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 1)
प्राक्कथन
बंदउँ गुरुपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महा मोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर ।।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूँ पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियौ बताय ।।
गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दै बाहर मारै चोट ।।
हमारे पूर्वजों ने गुरु को ईश्वर से भी बड़ा बताया है। इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। दूसरों का अनुभव जो भी रहा हो, लेकिन मेरे व्यक्तित्व के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ मेरे गुरुओं का ही रहा है। मेरा स्वयं का प्रयास इस मामले में तुच्छ ही है। जिन गुरुओं का मेरे व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ा है, उनमें मेरे विद्यालयीन शिक्षक ही नहीं, बल्कि मेरे माता-पिता, चाचा-ताऊ, बड़े भाई-बहिन तथा गाँव-परिवार के वे लोग भी शामिल हैं, जिनसे मैंने किंचित मात्र भी सीखा है।
उन्हीं सबका स्मरण करके मैंने अपने विद्यार्थी जीवन के ऊपर अपनी कलम चलाने का साहस किया है। आज तक कितने ही महापुरुषों, विद्वानों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों तथा अन्य महान् आत्माओं ने अपनी आत्मकथाएं लिखी हैं। मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूँ। मैं तो स्वयं को एक साधारण विद्यार्थी और किसान-दुकानदार का बेटा मानता हूँ। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति द्वारा अपने छात्र जीवन पर आत्मकथा लिखने का यह प्रयास एक दुस्साहस ही कहा जायेगा। फिर भी यह सोचकर कि शायद मेरा संघर्षपूर्ण जीवन आने वाली पीढ़ियों को कुछ शिक्षा या प्रेरणा दे सके, मैंने यह कार्य करने की हिम्मत की है। मुझमें इतनी हिम्मत का होना भी मेरे गुरुजनों की ही देन है।
यद्यपि ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जिन्होंने मेरे इस प्रयास की हँसी उड़ायी और इसे समय का अपव्यय बताया। लेकिन बड़ी संख्या में मेरे ऐसे मित्र भी हैं जिन्होंने मेरे इस प्रयास की प्रशंसा की तथा आत्मकथा के कुछ भागों को पढ़कर या सुनकर उसकी सराहना भी की। ऐसे ही मित्रों द्वारा प्राप्त प्रेरणा से इस आत्मकथा को पूरा करना संभव हुआ है।
सबसे अधिक कठिनाई मुझे इसके लिए उचित शीर्षक की तलाश में आयी। आम शीर्षक ‘मेरी आत्मकथा’, ‘मेरी कहानी’ या ‘मेरा विद्यार्थी जीवन’ आदि ज्यादातर मित्रों द्वारा सुझाये गये थे, जो मुझे पसन्द नहीं आये, क्योंकि मैं इसका कोई अद्वितीय शीर्षक रखना चाहता था। मेरे परम प्रिय पत्र-मित्र श्री रमेश चन्द्र राणा ने कई अच्छे शीर्षक सुझाये- ‘अविजित क्षितिज’, ‘आ ही गया बसन्त’, ’अनजानी राहें’ आदि। मैंने स्वयं भी कई शीर्षक सोचे, जैसे – ‘अनजान राहों का पथिक’, ‘अतीत का झरोखा’, ‘सुबह का सफर’, ’सफलता की खोज में’, ‘एक विद्रोही की आत्मकथा’ आदि। लेकिन अन्त में मैंने एक विलक्षण शीर्षक पसन्द किया ‘मुर्गे की तीसरी टाँग’। इसके साथ मैं ‘सुबह का सफर’ इस शीर्षक को भी छोड़ नहीं पा रहा था। अतः मैंने संयुक्त रूप से इन दोनों शीर्षकों तथा परिचयात्मक शीर्षक के रूप में ‘एक विद्यार्थी की आत्मकथा’ इन शब्दों को पसन्द किया।
मेरी इस आत्मकथा, बल्कि कहिए कि आत्मकथा के एक भाग, का शीर्षक ‘मुर्गे की तीसरी टाँग’ केवल व्यंग्यात्मक नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक गहरा अर्थ छिपा हुआ है। यह शीर्षक एक सत्य घटना पर आधारित है, जो कुछ यों है –
एक बार तीन थानेदार एक छोटे से होटल में गये और मुर्गा पकाने का आर्डर दिया। थोड़ी देर में मुर्गा पक कर तीन प्लेटों में आ गया। उनमें से दो प्लेटों में मुर्गे की एक-एक टाँग रखी थी और तीसरी प्लेट में कोई टाँग नहीं थी। जिस थानेदार को यह बिना टाँग वाली प्लेट मिली, वह अपनी प्लेट में मुर्गे की टाँग न देखकर आग बबूला हो गया और दहाड़ा- ‘बेयरा…!’। बेचारा बेयरा दौड़ता हुआ आया- ‘कहिये साब!’।
‘मेरी प्लेट में मुर्गे की टाँग क्यों नहीं है?’
‘मुर्गा एक ही था, साब। आप मैनेजर साहब से पूछ लें।’ कहकर बेयरा बेचारा अपनी जान छुड़ाकर भागा। थानेदार फिर दहाड़ा- ‘मैनेजर..!’ मैनेजर हाथ जोड़ता हुआ आया- ‘क्या बात है साहब?’
‘मुर्गे की तीसरी टाँग कहाँ गई?’
‘मुर्गे की दो ही टाँगें होती है, साहब, तीसरी नहीं होती।’ मैनेजर ने बताया।
यह सुनते ही थानेदारों का पारा चढ़ गया। ‘साले हमें बेवकूफ बनाता है।’ कहते हुए उन्होंने मैनेजर को पीटना शुरू कर दिया। तब तक वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। जब उन्होंने निरपराध मैनेजर को पिटते देखा, तो भीड़ को भी जोश आ गया। तुरन्त उन्होंने तीनों थानेदारों को पकड़ लिया और फिर उनकी जमकर कुटाई की। उनमें से एक थानेदार बेहोश हो गया। एक का पैर टूट गया और तीसरे के भी काफी चोटें आयी। उसी रात तीनों थानेदार मुअत्तिल कर दिये गये।
इस सत्य घटना का समाचार आगरा के लोकप्रिय अखबार ‘अमर उजाला’ में छपा था। उसी दिन से ‘मुर्गे की तीसरी टाँग’ ये शब्द मेरे लिए अर्थवान् बन गये। एक तरफ तो यह कहानी नौकरशाहों की मूर्खता, धूर्तता, अत्याचार तथा स्वच्छंदता की प्रतीक है, तो दूसरी ओर जनता की संगठित शक्ति और जागरूकता की भी। इसीलिए मैंने अपनी आत्मकथा के शीर्षक के लिए इन शब्दों को पसन्द किया, क्योंकि मेरा जीवन, विशेषकर विद्यार्थी जीवन, नौकरशाही के खिलाफ संघर्ष करने में और लोगों को जागरूक बनाने में ही व्यतीत हुआ है।
मेरा सम्पूर्ण जीवन विशेषकर विद्यार्थी जीवन संघर्षो और उपलब्धियों से भरपूर रहा है। अतः यदि कहीं ऐसा लगे कि मैंने आत्म प्रशंसा में अतिशयोक्ति की है, तो वह क्षम्य है। वैसे मैंने यथा संभव यह कोशिश की है कि पाठकों को घटनाओं के विवरण में आत्मप्रशंसा न लगे। मेरा उद्देश्य सभी घटनाओं को सत्य-सत्य लिख देना मात्र रहा है।
मैंने अपने सम्पर्क में आये व्यक्तियों के गुणों-अवगुणों की विस्तारपूर्वक चर्चा कई अध्यायों में की है। इस प्रयास में मुझे कई गुरुजनों की आलोचना भी करनी पड़ी है। यहाँ भी मेरा उद्देश्य सत्य का निरूपण करना मात्र रहा है। फिर भी मैंने यह प्रयत्न किया है कि आलोचना भी यथासंभव कोमल शब्दों में हो।
अपने विद्यार्थी जीवन की यह कहानी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्यधिक हर्ष हो रहा है। यदि कभी समय मिला और ईश्वर ने शक्ति दी, तो आगे के जीवन की कहानी भी लिखने का साहस करूँगा।
मेरा यह प्रयास कैसा बन पड़ा है, इसका मूल्यांकन सुधीजनों को ही करना उचित है। अस्तु।
– विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
पादटीप–
आत्मकथा का यह भाग सन् 1985-86 में तब लिखा गया था, जब मैं लखनऊ में हिन्दुस्तान ऐरोनाॅटिक्स लि. में अधिकारी के रूप में सेवा कर रहा था। तब से अब तक गंगा-यमुना-गोमती में बहुत पानी बह चुका है। बहुत सी जानकारियाँ पुरानी हो गयी हैं तथा नयी जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत होती है। फिर भी, इस भाग को फिर से न लिखना पड़े इसलिए नवीनतम जानकारी स्थान-स्थान पर पादटीप के रूप में दे रहा हूँ।
विजय भाई , आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं जो ऐसे है जैसे कोई सामने बैठा अपनी जिंदगी की सभी बातें बता रहा हो .कोई समय था जब हम फ़िल्में बहुत देखा करते थे लेकिन अब मुझे यह सब अननेचुरल लगता है . मेरी मिसज़ हर रोज़ शाम को टीवी सीरीअल देखती है , मुझे यह सब बचों जैसी कहानिआन लगती हैं . अपनी जीवन कथा हमेशा नैचुरल ही होती है . जो मुर्गे की तीसरी टांग नाम दिया है बहुत अच्छा लगा , मैं सारी पडूंगा .