दफ़न
काँच से बना टी टेबल
या हो दर्पण
चीनी का हो कप
या कोमल पंखुरिया से
घिरा सुमन
प्यार की तरह
कितना भी संभालो
कभी न कभी
टूट कर बिखर ही जाते है
तब कितना
एकाकी हो ज़ाता है
न मन और जीवन
घिर आता है तब
अचानक घुप अंधेरा
रास्ते भूल जाते है
करना मार्गद्रशन
जग लगने लगता है
मानो हो वह
बबूल का कानन
क्योंकि
फिर से नही खिलता वही पुष्प
वही पंखुरियों का दल
क्योंकि
फिर से लौट कर नही आता
न वह पल
न वही सुरभित पवन
काँच के टुकड़ों मे
समा जाता है सुंदर अतीत
एक क्षण में ही
मेरे हज़ारो घायल चेहरे
हो जाते है
पीड़ा से कराहते हुऐ
एक साथ
समय की गहरी खाई में दफ़न
किशोर कुमार खोरेंद्र
लाजबाब
वाह ! वाह !! बहुत खूब !