हीरोइन की मौत
सारा शहर सन्नाटे में डूबा था। अजीब-सा सन्नाटा पसरा था, हर तरफ। सभी की आँखों में बस एक ही प्रश्न था-‘आखिर वह इतने जल्दी कैसे मर गयी? कुछ दिन और रुककर वह यह शाॅट देती तो उसके बाप का क्या जाता?’ देश की एक बड़ी हीरोइन की मौत हो गयी थी।
‘नहीं, उसने आत्महत्या की होगी।’ एक ने शंका व्यक्त की।
‘कैसी बेवकूफों जैसी बातें करते हो? बड़े लोग भी कभी आत्महत्या करते हैं! उनकी हमेशा हत्या होती है। आत्महत्या तो इस देश में गरीब किसान, बहुएँ और सेना के जवान करते हैं.’ – दूसरे ने उसकी बात को काटते हुए कहा।
कुछ लोग कुछ अधिक ही परेशान थे। ‘क्या चीज़ थी यार, बस देखते रह जाओ पर आँखें नहीं थकतीं थीं। ऐसा लगता था कि बस…..। मैं तो उसकी एक भी फिल्म नहीं छोड़ता था और वह पिक्चर तो मैंने छः बार देखी, जिसमें उसकी टाँगें दिखायी गयी थी।’ किसी ने अपनी चाहत प्रकट की। प्रशंसकों का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जो चेहरा और अभिनय कम, टाँगें अधिक पसंद करते हैं। बेचारी मर गयी लेकिन टाँगें दिल में लटका गयी।
‘मेरकू लगता है स्साला, उसके आदमीनेइच उसको खल्लास कर डाला। जबसे वो नया हीरो आया है न, ये उसको भौत चिपकती थीं.’ -एक और बोला।
‘अरे यार ये तो फिलम लाईन में चलताइच रहता हैं। कभी इस डाल पे तो कभी उस डाल पे। उसके आदमी का भी तो लफड़ा था।’ दूसरे ने हीरोइन का पक्ष लिया। पहले ने भारतीय दर्शन झाड़ा- ‘लेकिन पार्टनर, औरत जात ने औरत जैसा रहना चाहिए, अपने हिसाब से रहना चाहिए।’ इस वार्तालाप में हमें एक शेर याद आ गया-
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती,
काॅलेजों में मातम छाया था। लड़के उदास थे, लड़कियाँ खुश। सोच रहीं थीं- ‘चलो, अब तो कोई हमारी तरफ देखेगा। जब से आयी थी सारे लड़के इसी की तस्वीर लिए फिरते थे।’ परीक्षा में कुछ लड़को के परचे बिगड़ गये थे। बिगड़े परचों का इलाज तो काॅपी जाँचनेवाले को पैसे देकर हो सकता था। पर इस टूटे दिल की दवा कहाँ से होगी? अब रात में सोकर क्या फायदा जब सपने में वो ही न आयेंगे!
बात हमारी समझ में न आयी। मौत और सपनों के बीच का रहस्यवाद हम समझ न सके। कारण पूछा तो, उत्तर बड़ा रोमांटिक था- ‘साहब, वो जबसे फिल्मों में आयी थी, हर फिल्म के साथ अपने शरीर का एक कपड़ा कम कर रही थी। उसकी जिस फिल्म को मैं देखता, उसका वह सीन उस रात मेरे सपनों में आ जाता था। एक-दो फिल्म और करती तो शायद इस दिल की मुराद पूरी हो जाती, अब तो आधे में लटका गयी।’ लड़कों के दिल के अरमां आँसुओं में बह रहे थे।
पड़ोसी बाबाजी भी कम गमगीन न थे। उनके हिसाब से उसने मरने में जल्दी कर दी थी। उसे इतनी जल्दी नहीं मरना चाहिए था। जवान हीरोइन की मौत का दुःख क्या होता है, आप क्या जाने? हमने दो-दो सदमें झेले भैया। मीना और मधुबाला भी गयीं पर, कुछ बूढ़ी तो हो गयीं थीं। पर ये तो अभी…..’ कहते-कहते, बाबाजी की आवाज भर्राने लगी। कहने का मतलब हर कोई उदास था।
आज नगर के गांधी-चौक पर हीरोइन की मौत का मातम मनाया जानेवाला था। मोहल्ले में चहल पहल थी। उसकी फिल्मों के गीत जोर-जोर से बजाए जा रहे थे। वहीं अस्पताल के मरीज जो कि अपनी मृत्यु की राह देख रहे थे, इस शोर-शराबे से परेशान हो रहे थे। पेंटर और फूलवाला खुश थे। मरते-मरते उनका फायदा जो करा गयी थी। मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है, उन्हें आज पता चला था। मोहल्ले के आवारा और बेरोजगार लड़कोे में एक जोश था-एक अजीब टाइप का जोश। सभी की इच्छा थी कि शोकसभा जोरदार होनी चाहिए। बड़े बजट की हीरोइन थी, शोकसभा का बजट भी बड़ा होना चाहिए। वे राह चलते लोगों को रोक-रोककर चंदा वसूल करने में लगे थे।
‘आज मंगू बीड़ी नहीं पिएगा, कल्लू पान और गुटका नहीं खाएगा। और पप्पू, तू अपनी मैना के साथ आज पिक्चर जानेवाला था न, आज वो भी कैंसिल। छुट्टन, चल कल के जुए में जीते पैसे निकाल.’ -दादा सबको निर्देश दे रहा था- ‘क्या, हम इतना भी नहीं कर सकते उसके लिए? हम इतने टुच्चे हैं! उसने हमारा दिल बहलाया। भई हममें भी इंसानियत होनी चाहिए। कार्यक्रम जोरदार होगा, होना ही चाहिए।’ तैयारियाँ जोरशोर से चल रहीं थीं।
मैं वहीं चाय की टपरिया पर चाय पी रहा था। पास पड़ा अखबार उठाया। मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं। हीरोइन बड़ी-सी तस्वीर और खबर के साथ एक अखबार के कोने में छोटे-छोटे अक्षरो में एक छोटी-सा समाचार छपा था-
‘कश्मीर में आतंकवादियों ने पचास लोगो को एक साथ मौत के घाट उतारा।’
इस कडवी सच्चाई पर क्या कहूँ
बहुत करारा व्यंग्य ! आतंकवादियों के हाथों हुई ५० लोगों की हत्या के मुकाबले एक फ़िल्मी हीरोइन की मौत कही अधिक ध्यान खींचती है. मीडिया भी इसमें मक्कारी करता है.