कविता : आस्था व रोटी
आस्थाएं ,
धर्म की,ज्ञान की या कर्म की;
मानव ही बनाता है।
सम्यगज्ञान,सम्यग दृष्टिकोण ,सम्यग भाव ,
एवं सम्यग व्यवहार से सजाता है।
ताकि ,जीवन चलता रहे ,
प्रगति के पथ पर ,
सहज,सरल,सानंद।
समाज की धारा बहती रहे ,
सतत ,अविरल,गतिरोध रहित ,
बहती नदिया के मानिंद ।
जन जन को उपलब्ध रहे ,एक समान ,
रोटी,कपडा और मकान।
आस्थाएं ही बन जातीं हैं ,
नियम ,कायदे ,क़ानून व उनका सम्मान ,
आस्था बन जाती है,
पूजा और भगवान्।
ताकि मानव हो एक समान ,
इंसान बन कर रहे -इंसान।
आस्था जुडी है ,रोटी से ।
आस्था से यदि उत्पत्ति होती है ,
भ्रम की,मिथ्याभिमान की ;
आस्था से यदि उत्पत्ति होती है ,
असमानता की ,सामाजिक विद्रूपता की ,
अशांति की ;
आस्था यदि भंग करती है ,सामाजिक तादाम्य को ,
आस्थाएं यदि असम्प्रक्त हैं ,
जन जन की दैनिक समस्याओं से ,
भावनाओं से,आवश्यकताओं से ;
तो वह रोटी -विहीन आस्था ,
आस्था नहीं है।
रोटी जुडी है ,आस्था से ।
सदियों पहले , जब मानव ने ,
दो पैरों पर चलना सीखा ;
रोटी को दूसरों से बांटकर खाना सीखा ;
भाई भूखा न रहे ,
इस भावना में जीना सीखा ;
आस्था मुखरित हुई ,
रोटी आस्था में समाहित हुई ।
संगठन की आस्था व्यवहारोन्मुखी हुई ,और –
प्रगतोन्मुखी हुआ समाज ।
आस्था प्रगति की कुंजी है ,
सबको समान ,ससम्मान रोटी की ,
गारंटी है ,पूंजी है।।
सिर्फ़ स्वयं के लिए कमाना,खाना ,
व्यक्ति का रोटी के लिए बिक जाना ,
आस्था विहीन रोटी है , जो-
मिथ्या ज्ञान,मिथ्या दृष्टिकोण ,मिथ्या भावःव-
मिथ्या व्यवहार को उत्पन्न करती है ;
असामाजिकता उत्पन्न करती है ,
आस्था हीन रोटी
पतनोन्मुखी है ॥
bahut achha kavita hai .
अच्छी कविता !