कविता

एक दो बातें पहाड़ के दर्द की

 

वर्षा को मत दोष दो, देखो अपना हाल,
वृक्ष सारे काट दिए, पहाड़ हुए बेहाल।

नंगे तन कब तक सहें, सर्द बर्फ की मार,
वृक्ष लगाकर कर सको, करलो कुछ उपचार।

उफनायेंगीं नदियां सभी, टूटेंगे सब तट बंध,
अब तो मानव बंद करो, दोहन का यह द्वन्द्ध।

डॉ अ कीर्तिवर्धन

2 thoughts on “एक दो बातें पहाड़ के दर्द की

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी बात, डॉ साहब. आपने कम शब्दों में पहाड़ के दर्द को बखूबी बयान किया है. पहाड़ों में समस्याएं भी पहाड़ जैसी हैं. जो पहाड़ हमें सब कुछ देते हैं – जल, वायु, अन्न, फल, फूल, दवाएं, लकड़ी…… उनको हम अपने स्वार्थ में अंधे होकर नंगे किये दे रहे हैं. धिक्कार है हमको. इससे मानव जाति और अन्य सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है.

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