कश्मकश
उनकी नफरत में भी प्यार बहुत छुपा हुआ था
दर्द अब तक है जो एक कांटा गहरा चुभा हुआ था
रोज फूल सा खत मिलते रहने पर
उल्फत की सादगी को गुमाँ हुआ था
देह से होकर जाती है रूह तक इक राह
धरती को चूमने के लिए आकाश झुका हुआ था
वो चाहते है की मोहब्बत बदनाम न हो
रूबरू जब भी मिला फासिले पर रुका हुआ था
हिज्र की तन्हाई में इसी तरह सदियाँ बीत गयी
पाप पुण्य के दोराहे पर कश्मकश ऊबा हुआ था
प्यार करने को भी लोग गुनाह कहते है
ये पहेली भी जो हल कभी न हुआ था
किशोर कुमार खोरेन्द्र
वाह ! वाह !! बहुत खूब !!!