कविता

मुक्तक

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काश ! कि गर हमदर्दी जताने की कला हमें भी आती

काश ! फिर न दिल दुखता न आँखें ही दरिया बन पाती

गैरों के दर्द को देखकर लगाते हमदर्दी के शब्दों का मरहम

काश ! फिर दिखावे की कमाई से हमारी भी झोली भर जाती

गुंजन अग्रवाल

नाम- गुंजन अग्रवाल साहित्यिक नाम - "अनहद" शिक्षा- बीएससी, एम.ए.(हिंदी) सचिव - महिला काव्य मंच फरीदाबाद इकाई संपादक - 'कालसाक्षी ' वेबपत्र पोर्टल विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ------ विस्तृत हूँ मैं नभ के जैसी, नभ को छूना पर बाकी है। काव्यसाधना की मैं प्यासी, काव्य कलम मेरी साकी है। मैं उड़ेल दूँ भाव सभी अरु, काव्य पियाला छलका जाऊँ। पीते पीते होश न खोना, सत्य अगर मैं दिखला पाऊँ। छ्न्द बहर अरकान सभी ये, रखती हूँ अपने तरकश में। किन्तु नही मैं रह पाती हूँ, सृजन करे कुछ अपने वश में। शब्द साधना कर लेखन में, बात हृदय की कह जाती हूँ। काव्य सहोदर काव्य मित्र है, अतः कवित्त दोहराती हूँ। ...... *अनहद गुंजन*

4 thoughts on “मुक्तक

  • गुंजन अग्रवाल

    ya ryt aa gurmel sir ji ..bahut bahut shukriya … aapki tippadi mujhe bahut protsaahit karti hai ..again thnx 🙂

  • गुंजन अग्रवाल

    shukriya vijay bhai 🙂

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा मुक्तक ! बहुत गहरी बात कही है. लोग सहानुभूति का दिखावा मात्र करते हैं.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत दफा हमदर्दी सिर्फ दिखावा ही होता है , यह कमाई ही है कि हम दूसरों की आँखों में अछे बनना चाहते हैं . जब दुःख मिला तो आन मिले , जब सुख मिला तो मुंह फेर लिया .

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