उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 4)

अध्याय-2: श्री गणेशाय नमः

कहानी मेरी रूदादे जहाँ मालूम होती है।
जो सुनता है उसी का दास्तां मालूम होती है।।

जुलाई का महीना था। गाँव के एक मात्र प्राथमिक विद्यालय (बेसिक प्राइमरी पाठशाला, दघेंटा) में दाखिलों की धूम थी। यह विद्यालय हमारे घर के ठीक पीछे था। लोग अपने-अपने नौनिहालों को इस विद्यालय में प्रवेश दिला रहे थे, ताकि वे आगे चलकर स्वयं को देश का योग्य नागरिक साबित कर सकें। उस समय मैं लगभग साढ़े चार साल का था। स्वभावतः मेरे पिताजी को भी मेरी शिक्षा की चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा कि अगर इस बार इसे दाखिल न कराया गया तो एक साल बेकार चला जायेगा। अतः उन्होंने मेरी उम्र 5 साल बता कर विद्यालय में दाखिले के लिए अध्यापकों से कहा। हमारे गाँव के ही श्री शिव नन्दन शर्मा, जिन्हें लोग ‘पुजारी जी’ कहा करते हैं और जो कालान्तर में पोस्ट मास्टर हुए, उस समय वहीं सहायक अध्यापक थे। उनके ही संरक्षकत्व में मेरा विद्यालय-प्रवेश होना तय हुआ।

विद्यालय के अन्य अध्यापकों को शायद मेरी उम्र में सन्देह था, अतः उसके लिए मेरी परीक्षा ली गई। मुझे अपना सीधा हाथ सिर के बिल्कुल ऊपर से ले जाकर बायाँ कान पकड़ने को कहा गया। मैंने कोशिश की और बमुश्किल कान को छू भर पाया। इतने से ही मुझे इस परीक्षा में उत्तीर्ण कर दिया गया और प्रवेश देना स्वीकार कर लिया गया। तुरन्त एक नयी तख्ती (जिसे पट्टी कहा जाता था) मंगवायी गयी। नयी कलम और नयी दवात (जिसे बुद्दिका कहा जाता था) भी मंगवायी गयी। विद्यालय के तत्कालीन प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा ने मेरी पट्टी पर स्वास्तिक का चिह्न बनवाया, मुझसे ‘ओउम्’ के साथ ‘श्री गणेशाय नमः’ भी लिखवाया और मेरा तिलक किया। मैंने सभी गुरुजनों के पैर छुए, पिताजी ने प्रधानाध्यापक जी को कुछ दक्षिणा दी तथा बताशों का प्रसाद विद्यालय में वितरित कराया। इस प्रकार बेसिक प्राइमरी पाठशाला, दघेंटा, जिला- मथुरा में देश के एक भावी नागरिक की (अर्थात मेरी) शिक्षा का श्रीगणेश हुआ।

क्योंकि मुझे अक्षर ज्ञान पहले से ही था और गिनती-पहाड़े भी जानता था, अतः मुझे प्रवेशिका (जिसे गाँव में ‘कच्चा एक’ कहा जाता था) में पढ़ाने का प्रश्न ही नहीं था, अतः मुझे सीधे कक्षा एक (जिसे ‘पक्का एक’ कहा जाता था) में दाखिल किया गया। वहाँ मेरे अध्यापक थे श्री नन्द किशोर शर्मा, जो काफी वृद्ध थे और एक साल बाद ही रिटायर होने वाले थे। उनके बारे में मुझे ज्यादा याद नहीं है। सिर्फ इतना याद है कि एक बार उन्होंने हम सबसे मिट्टी की गोलियाँ बनवायीं थीं, जिनसे वे सबको गिनती आदि सिखाया करते थे। कई बार वे ऐसे प्रश्न पूछा करते थे जिनका जबाब पूरी कक्षा में केवल मैं दे पाता था और तब पुरस्कार में सभी छात्रों को एक-एक घूँसा लगाने का अधिकार पाता था। मैं इस प्रकार प्रायः प्रतिदिन ही सारी कक्षा को घूँसे लगाया करता था। अब यह बात और है कि कई लड़के, जो मुझसे ज्यादा ताकतवर थे, स्कूल से लौटते समय रास्ते में ही मुझे घूँसा मारकर अपना हिसाब बराबर कर लिया करते थे। मैं लज्जावश और भयवश इस बात की किसी से शिकायत नहीं कर पाता था।

पहली कक्षा में मैंने शायद ही कोई नयी बात सीखी होगी, क्योंकि उस स्तर तक का ज्ञान मुझे पहले से ही था। एक मात्र चीज, जो मैंने पहले साल उस स्कूल (जिसे मदरसा कहा जाता था) में सीखी, वह थी गालियाँ देना। विद्यालय में गालियों का साम्राज्य था। अर्थ न जानते हुए भी सब बच्चे उनका प्रयोग सर्वनाम की तरह किया करते थे तथा दूसरों के परिवारीजनों (महिलाओं) से अनुचित संबंध जोड़ा करते थे। परम्परानुसार यह ज्ञान पुराने छात्रों से नये आये छात्रों को मिल जाता था। उस समय के संस्कार मेरे मन पर अभी तक इतने प्रबल हैं कि आज भी यदा-कदा, बल्कि अधिकतर, मेरे मुँह से गालियाँ निकलती रहती हैं। मेरे इस ज्ञान में समय पाकर ह्रास नहीं बल्कि विकास ही हुआ है। अधिक ‘सभ्य’ और ‘शिक्षित’ लोगों के सम्पर्क में आकर मैंने उन ठेठ ग्रामीण गालियों के अलावा अनेक ‘उच्च स्तरीय’ गालियों का भी ज्ञान प्राप्त किया है, जिनमें कुछ अंग्रेजी की गालियाँ भी शामिल हैं, जो मेरी जिह्वा पर आज भी निरन्तर विराजमान रहती हैं। अस्तु।

कक्षा एक उत्तीर्ण करने के उपरान्त मैं कक्षा दो में आया जहाँ मेरे अध्यापक थे श्री शिवनन्दन लाल शर्मा, जिनके संरक्षकत्व में मेरा दाखिला हुआ था। मेरे व्यक्तित्व निर्माण में सबसे ज्यादा हाथ उनका ही रहा है। मेरे मन में उनके लिए आज भी अत्यन्त आदर है और जब भी मैं अपने गाँव जाता हूँ, उनका चरणस्पर्श करना अपना सौभाग्य मानता हूँ। उनमें मुझे सिर्फ एक दो बुराइयाँ नजर आती थीं। पहली तो यह कि गाँव-इलाके की परम्परा के अनुसार वे गालियाँ बहुत देते थे और उन्हें क्रोध बहुत आता था। उनका दूसरा अवगुण यह था कि वे रुपये-पैसे के बहुत लोभी थे। अगर किसी भी बहाने से उनके पास धन आ सकता था, तो वह उस अवसर को किसी भी तरह नहीं छोड़ते थे। इन एक-दो अवगुणों को छोड़ दिया जाय तो मैं उन्हें गुणों की खान ही कहूँगा। उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया, इतना सिखाया, जिसकी कोई सीमा नहीं।

उनका प्रमुख गुण था स्पष्टवादिता। वे कोई भी बात अपने मन में छिपाकर नहीं रखते थे और अप्रिय लगने की सीमा तक स्पष्टवादी थे। स्पष्टवादिता मैंने उनसे ही सीखी है। दूसरे, वे कवि और लेखक भी थे तथा उनका ज्ञान विद्यालय के अन्य अध्यापकों से कहीं ज्यादा था। वे हमें पढ़ाने के साथ-साथ ऐसी-ऐसी बातें बताया करते थे जो आगे हमारे जीवन में बहुत काम आ सकती थीं। विद्या के प्रति अनुराग उनके ही द्वारा मुझमें पैदा हुआ, अन्यथा पहले मैं पढ़ाई का महत्व समझे बिना ही पढ़ा करता था।

उन्होंने मुझे सभाओं में बोलना सिखाया। जैसा कि मैं लिख चुका हूँ, माताजी ने मुझे कई भजन और प्रार्थनाएं याद करा दी थीं, जिन्हें मैं घर पर गाया करता था। दूसरे लोगों के सामने गाने का मुझे तब तक कोई अवसर नहीं मिला था। मेरी झिझक तोड़ने के लिए (बल्कि कहिए कि सारी कक्षा की झिझक तोड़ने के लिए) उन्होंने एक योजना बनाई। उन दिनों, हमारे स्कूल में प्रत्येक शनिवार की शाम को छात्रों की सभा हुआ करती थी, जिसे ‘बाल सभा’ कहते थे। इसमें बच्चे गीत गाते थे या कुछ अन्य कार्यक्रम या खेलकूद हुआ करते थे। एक दिन हमारे कक्षा अध्यापक (श्री शिवनन्दन लाल शर्मा) ने हम सबसे कहा कि अगली बाल सभा में सबको कुछ न कुछ बोलना है। ज्यादातर बच्चे यह सुनकर ही घबरा गये। फिर भी उन्होंने हर लड़के को कुछ न कुछ बोलने के लिए बता दिया। ज्यादातर को अपनी पाठ्य पुस्तक में से कविता बोलने को कहा गया। मुझे भी एक कविता बोलनी थी, जो कि मुझे पहले से याद थी।

बालसभा में उन्होंने सबसे पहले मुझे ही बोलने के लिए बुलाया। मैं उस समय काफी घबरा रहा था और शर्मा रहा था, फिर भी झिझकते-झिझकते मैं उनके पास पहुँचा और उनकी कुर्सी पकड़कर सिर झुकाकर खड़ा हो गया। उन्होंने मुझे बहुत प्यार से कहा कि बोलो। किसी तरह मैं शुरू हुआ और धीरे- धीरे बोलने लगा-
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर हटो नहीं
तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो …

जैसे ही कविता पूरी हुई, उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और सारी बाल-सभा ने तालियाँ बजायीं। इसके साथ ही मैं वहाँ से भाग खड़ा हुआ और अपनी जगह आकर बैठ गया।

यह था पहली बार सार्वजनिक सभा में मेरा बोलना। इसके बाद तो मेरी सारी झिझक दूर हो गयी और एक समय ऐसा भी आया जब मैं पूरे विद्यालय में सर्वश्रेष्ठ वक्ता माना जाता था।

पुजारी जी ने मुझे कई नाटकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिकाएं दीं। उन्हें नाटक आदि कराने में बहुत रुचि थी। लगभग प्रतिमाह वे एक नया नाटक तैयार करते थे, कभी पुस्तकों से और कभी स्वयं लिखकर। फिर कुछ रिहर्सलों के बाद वे उसे पूरे विद्यालय के सामने कराते थे। कक्षा दो में खेले गये एक नाटक की मुझे अच्छी तरह याद है। वह रामायण पर आधारित था। प्रसंग था हुनमान का समुद्र लाँघना और सीता के पास राम की अँगूठी पहुँचाना। मैं उसमें सीता बना था, क्योंकि मेरी आवाज लड़कियों जैसी थी और मैं गीत गाने में भी निपुण था। इस नाटक में जब हनुमान ने सीता के पास अँगूठी गिराई, तो सीता ने एक गीत गाया था, जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैं-
मुदरिया मोइ साँचु बताइदै, रामु कहाँ आयी छोड़ि?
न छोड़े तैंने पम्पापुर दरम्यान
काटि लये सूपणखाँ के कान
मुदरिया मोइ साँचु बताइदै, रामु कहाँ आयी छोड़ि?

यह गीत पुजारी जी ने खुद लिखा था और इसकी तर्ज भी ऐसी दर्द भरी बनाई थी कि सुनने वालों की आँखों में आँसू आये बिना नहीं रहते थे। बड़े परिश्रम से मैंने इसे गाना सीखा और जब प्रस्तुत किया तो काफी सफलता मिली और शाबासी भी।
कक्षा दो में मेरी सांस्कृतिक गतिविधियाँ ज्यादातर कक्षा तक ही सीमित रहीं क्योंकि गाँव वालों के सामने प्रस्तुत करने के लिए मैं अभी काफी छोटा था। दूसरी बात यह थी कि आगे की कक्षाओं में कई दूसरे छात्र थे, जो सांस्कृतिक प्रतिभा में मुझसे किसी तरह भी कम नहीं थे।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 4)

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोचक आत्म-कथा …. उत्सुकता बढती जा रही है

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार. विभा जी. आपने सही कहा. आगे की कहानी पढ़कर आप आश्चर्यचकित रह जाएँगी. mएरी जिंदगी में बहुत विलक्षण घटनाएँ हुई हैं. इसीलिए आत्मकथा लिखने का साहस किया है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    शहर की जिंदगी कुछ और होती है लेकिन गाँव की जिंदगी में एक रुमांस सा होता है किओंकि वहां घूमने फिरने की कोई सीमा नहीं होती , हर शनिवार मैं भी अपने सकूल में बच्चों को तियार करता था और स्टेज सैक्रेटरी की भूमिका निभाया करता था , किओंकि मैं खुद अच्छा गाया करता था इस लिए इस में मुझे कोई परेशानी नहीं हुआ करती थी . आप की कहानी से मेरा बचपन आँखों के सामने आ रहा है .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. इसीलिए तो इस अध्याय के शुरू में ही एक शेर लिखा है जिसक अर्थ है कि मेरी कहानी सबकी कहानी है.

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