आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 5)
जब मैं कक्षा तीन में आया, तो मेरे बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप कक्षा 5 में पहुँच चुके थे। उनकी कक्षा के श्री चन्द्रभान आदि कई छात्र भी सांस्कृतिक प्रतिभा सम्पन्न थे। हमारे प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा भी नाटक आदि खिलाने में काफी रुचि लेते थे। मुझे याद है कि उन्होंने एक बार एक बड़ा ऐतिहासिक नाटक तैयार किया था, जो कई रिहर्सलों के बाद गाँव के लोगों के सामने खेला गया था। उस नाटक में मुझे कोई भूमिका नहीं मिली क्योंकि मैं अभी काफी छोटा था। लेकिन मेरी अच्छी आवाज के कारण श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा ने मुझे एक सामूहिक गीत गाने वाली टोली में शामिल कर लिया था। यह गीत भी नाटक के अन्तर्गत था। मेरे बड़े भाई की भूमिका उसमें एक ऐसे बालक की थी जो अपनी माता के मर जाने पर करुण विलाप करता है। मेरे भाई श्री गोविन्द का विलाप इतना शानदार रहा कि उनका नाम गाँव भर में प्रसिद्ध हो गया। यहाँ तक कि हम दोनों के चेहरों की समानता के कारण कई लोग गलती से मुझे भी ‘गोविन्दा’ कहकर बुलाने लगे थे।
जब इस नाटक में सामूहिक गीत गाने का अवसर आया, तो मैं सामान्य कपड़ों में ही गीत गाने वाली टोली के साथ जाकर खड़ा हो गया। उस समय काफी जाड़ा पड़ रहा था। शायद दिसम्बर का महीना था। गलती से मैंने अपने कानों पर कोई मफलर आदि नहीं बाँध रखा था। स्वाभाविक ही व्यवस्थापकों को चिन्ता हुई कि कहीं मुझे सर्दी न लग जाये। मेरा घर हालांकि उस स्थान से, जिसे ‘गाँधी चबूतरा’ कहते थे, ज्यादा दूर नहीं था। लेकिन घर जाने और मफलर लाने का समय नहीं बचा था। समस्या का समाधान किया हमारे परिवार के ही एक व्यक्ति श्री श्याम बिहारी ने, जो बर्फ बेचने का कार्य किया करते थे। उन्होंने अपने सिर पर बँधी हुई एक चादर मेरे सिर पर इस तरह बाँध दी जैसे सिख लोग सिर पर पगड़ी बांधा करते हैं। मैने कुछ विरोध भी किया, लेकिन सर्दी का भय दिखाकर उन्होंने मुझे उसे बाँधे रखने पर मजबूर कर दिया। लिहाजा मैं उसे बाँधे हुए ही मंच पर जा खड़ा हुआ।
मुझे अपने सिर के आकार के अनुपात में असामान्य रूप से बड़ी पगड़ी बांधे देखकर दर्शकों में हंसी की लहर दौड़ गयी। मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ और चाहा कि इसे उतार कर फैंक दूँ, लेकिन बाँधने वाले ने फिर डपट दिया। खैर, गाने के लिए आदेश मिलते ही मैंने अपनी टोली के साथ गाना शुरू कर दिया-
प्यारा हिन्दुस्तान है, गोपालों की शान है
वीरों का मैदान जिसमें भक्तों के भगवान हैं
यहीं के हनुमान थे, अर्जुन से बलवान थे
महाराणा प्रताप जिसमें शिवाजी की शान है। प्यारा हिन्दुस्तान है…
गीत काफी लम्बा था, लेकिन इससे आगे अब मुझे याद नहीं है। गीत पूरा करते ही मैं तालियों की प्रतीक्षा किये बिना मंच के पीछे भागा और सबसे पहला काम यह किया कि सिर की पगड़ी उतार कर बांधने वाले व्यक्ति (श्री श्याम बिहारी) को पकड़ा दी और इसके साथ ही घर की तरफ भाग खड़ा हुआ, क्योंकि अब वहाँ मेरा कोई काम नहीं था।
कक्षा तीन में मैंने और भी कई नाटक खेले थे, जिनमें से एक की मुझे अच्छी तरह याद है। वह नाटक शकुन्तला और दुष्यन्त का था। सामान्यतया मुझे नारी पात्रों की भूमिका दी जाती थी, क्योंकि मेरी आवाज लड़कियों जैसी थी, लेकिन इस नाटक में मुझे दुष्यन्त की भूमिका मिली, क्योंकि शकुन्तला को कुछ करना नहीं था और दुष्यन्त को एक गीत भी गाना था। जब राजा दुष्यन्त शिकार खेलते हुए आते हैं और कण्व ऋषि के आश्रम में शकुन्तला को देखते है, तो उस पर मोहित होकर एक गीत गाते हैं। वह गीत मुझे गाना था। गीत के बोल क्या थे, यह तो मुझे अब याद नहीं हैं, क्योंकि ज्यादातर मैं बिना मर्म समझे ही गीतों को गाया करता था और संवाद बोला करता था। लेकिन मेरा अनुमान है कि गीत के भाव कुछ इसी प्रकार के होंगे-
चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो,
जो भी हो तुम किन्तु लाजवाब हो।
इतना मुझे अवश्य याद है कि जब भी कोई गणमान्य व्यक्ति विद्यालय में पधारता था तो उनके सामने मेरा वह गीत गवाया जाता था। इस नाटक में शकुन्तला का पार्ट मेरे ही एक सहपाठी और मित्र देवेन्द्र सिंह ने किया था, जिसे मैं काफी दिनों तक ‘रानी’ कहकर चिढ़ाता रहा था।
पुजारीजी ने मुझे और देवेन्द्र को एक स्वागत गान भी रटा रखा था। जब भी कोई प्रमुख व्यक्ति विद्यालय में आता था, तो उसके स्वागत में हमें यह गीत गाना होता था। अब तक मेरी गायन प्रतिभा काफी मशहूर हो गयी थी। अतः पुरस्कारस्वरूप मुझे दो-तीन लड़कों की उस टोली में शामिल कर लिया गया, जो प्रातःकाल की सामूहिक प्रार्थना कराया करती थी। उसके बाद जब तक मैं उस विद्यालय में रहा उस टोली का प्रमुख सदस्य रहा और एक दिन को छोड़कर प्रतिदिन मैं ही सामूहिक प्रार्थना कराता रहा। उस एक दिन मैंने प्रार्थना क्यों नहीं करायी इसकी कथा मैं आगे लिखूंगा।
पुजारीजी यों तो काफी रुचियों वाले थे, लेकिन उनका एक प्रमुख मनोरंजन था कुछ लड़कों का नियमित मजाक बनाना और उसे पूरी कक्षा के सामने शर्मिन्दा करना। प्रायः वे हमारे एक सहपाठी, जिसका नाम ‘दिनेश’ था, लेकिन सभी उसे ‘भुट्टा’ कहते थे, का मजाक बनवाते थे, क्योंकि वह कुछ तुतलाता था। पुजारी जी उसे ‘जुल्फिकार अली भुट्टो’ कहा करते थे। जब भी उनका मूड़ होता था, जो कि प्रायः प्रतिदिन ही होता था, तो वे भुट्टा को खड़ा कर लेते थे और उससे कहलवाते थे- ‘बच्चो चुप हो जाओ’। भुट्टा इस वाक्य को इस प्रकार कहता था- ‘बट्टो, टुप हो डाओ’। इसके साथ ही सारी कक्षा हँस पड़ती थी। कई बार वह ‘बट्टो’ पर आकर रुक जाता था। तब पुजारी जी कक्षा पाँच से हमारे ताऊ जी के लड़के श्री बृज मोहन को बुलवाते थे, जिसका उपनाम ‘बट्टो’ था, और उससे कहते थे कि तुम्हें भुट्टा बुला रहा है। इस सबसे बेचारा भुट्टा बहुत हीनभावना से ग्रस्त हो गया था, यहाँ तक कि वह कक्षा 5 से आगे नहीं पढ़ पाया। आज-कल वह गाँव में ही परचूनी की दुकान करता है।
पुजारी जी का दूसरा मनोरंजन था- लड़कों को मुर्गा बनाना। हर गलती की सजा उनके पास थी- मुर्गा बनाना। कई बार वे सारी कक्षा से कहते थे कि मुर्गा बनने से हाथ-पैरों में बहुत मजबूती आती है, अतः तुम चाहो तो मुर्गा बन लो। सारी कक्षा स्वयं को मजबूत साबित करने के लिए तुरन्त मुर्गा बन जाती थी। थक जाने पर भी हमें मुर्गा बना रहना पड़ता था, क्योंकि हम स्वयं को कमजोर साबित नहीं करना चाहते थे। अन्त में जब पुजारी जी स्वयं कहते थे, तब लड़के पुनः मुर्गे से आदमी बन जाते थे।
सदा की तरह कक्षा तीन में भी मैं पढ़ने लिखने में सबसे आगे था। अपनी पढ़ाई की चिन्ता मैंने कभी नहीं की, क्योंकि मैं अपने पाठ्यक्रम से भी दो अध्याय आगे रहता था। अतः विद्यालय के समय के बाद मैं अन्य लड़कों के साथ खेलने निकल जाता था। इधर उधर पेड़ों पर या रास्ते में हम तरह-तरह के खेल खेला करते थे। कभी-कभी कंचे-गोलियाँ भी खेलते थे। कंचों पर मैंने कभी पैसे खर्च नहीं किये क्योंकि यह मुझे अपव्यय मालूम होता था। लेकिन मैं कंचे खेलने में काफी तेज था अतः प्रायः जीत कर ही आता था। कभी कभी ऐसा भी होता था कि मैं घर से कोई कंचा लेकर नहीं चला, विरोधी से दो कंचे उधार लिये और जीतने पर उसके तो दोनों लौटाये ही, कई जीत कर भी ले आया। गुल्ली-डंडा, कबड्डी, गिट्टी-फोड़ (पिड्डू) तथा कौआ-हाड़ मेरे प्रिय खेल थे। खेल के दौरान प्रायः रोज ही किसी न किसी के साथ मारपीट हो जाती थी, क्योंकि मैं किसी से दबता नहीं था लेकिन सारी मारपीट बाहर ही रहती थी। घर तक शिकायतें बहुत कम आती थीं।
(जारी..)
बहुत बढ़िया …रोचक हैं ….सिलसिलेवार पढ़े और अच्छा लगेगा ….पढ़ते है समय होतेही ….बोले भले न पोस्ट पर पढेगे जरुर
बहिन जी, आपको रोचक लग रहा है, तो मेरा परिश्रम सफल हुआ. अभी आगे पढ़ती जाइये. पढ़कर आप चमत्कृत हो जाएँगी.
🙂 सादर नमस्ते
भाई साहिब हम भी आप के साथ साथ बचपन में घूम रहे हैं . गुली डंडा पिठू अड्डा खड्डा पंजाब में एक गेम थी जो बंदरों की तरह दरख्तों पर चढ़ जाना होता था जिस को हम जंग पलंगा कहते थे . अब तो वोह ज़माने और दरख्त ही नहीं रहे . अब तो बच्चे बस इन्तार्नैत पे ही ऐक्सर्साइज़ करते हैं .
हा…हा….हा…. भाई साहब, इन खेलों के नाम भी हमारे खेलों से मिलते जुलते हैं. हम भी एक ऐसा खेल खेलते थे, जिसमें ‘चोर’ को छोड़कर सब पेड़ पर चढ़ जाते थे. नीचे एक जगह एक डंडा रखा जाता था. ‘चोर’ उसकी रक्षा करता था और किसी को छूने की कोशिश करता था, जबकि सब अचानक पेड़ पर से डंडे के पास कूदकर उसे दूर फेंक देते थे. बहुत मज़ा आता था.
चिर्री पाती कहते थे हमारी तरफ …हम भी खूब खेले है जब भी पापा के गाँव जाते …महुन्वे के पेड पर…….नमस्त भैया ……..किबोर्ड सही से चल नहिरह
नमस्ते बहिन जी. आपकी टिप्पणी पढ़कर आनंद आया. कीबोर्ड चले या न चले आपकी बात समझ में आ गयी.
विजय भाई , बस यही खेल था , बिलकुल यही , पंजाब में इसे जंग पलंगा कहते थे . एक सर्कल में डंडा रखा होता था . उस समय दरख्त बहुत हुआ करते थे , गाँव की जिंदगी का अपना ही एक मज़ा होता था , वोह बातें याद कर मज़ा आ जाता है .
मेरे भी भैया क को ट बोलते थे हमलोग बहुत हँसते थे … लेकिन समय के साथ एकदम ठीक हो गया ….. रोचक कहानी
धन्यवाद, विभा जी. तुतलाकर बोलना कई बार बड़ी उम्र के लोगों में भी देखा जाता है. लेकिन इससे हीनभावना नहीं आनी चाहिए.
रूचिकर लगा पढ़ने मे ।।
धन्यवाद, बंधु.